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________________ ४६२ [समराइच्चकहा रुहिरकसव्वालंबियदोहरवणकोलवन्भनिउरुंबं । कंकेल्लिपल्लवुप्पंकनिमियरेह धरणितलं ॥५२१॥ कोदंडखग्गघंटयमहिसासुरपुच्छवावडकराए। कच्चाइणिपडिमाए विहूसियं घोररूवाए ॥५२२॥ तओ तं दळूण चितियं धरणेणं--- सक्का सीहस्स वणे पलाइउं वारणस्स य तहेव । सुकयस्स दुक्कयस्स य भण कत्थ पलाइउं सक्का ॥५२३॥ एवं च चितयंतो छुढो सबरेहि वंद्रमझंमि । अह बंधिऊण गाढं पुत्वविरुद्धेहि व खलेहिं ॥५२४॥ एत्यंतरंमि समागओ चंडियाययण काल सेणो, पडिओ चंडियाए चलणेसु, भणियं च सगग्गयक्खरं-भयवइ, जइ वि न कओ तए महं पसाओ,तहावि जम्मंतरे वि जहा न एवं दुक्खभायणं हवामि, सहा तए कायव्वं ति । 'सत्थवाहपुत्तावयारकरणेण जं महं दुक्खं, तं तुमं चेव जाणसि त्ति भणिऊण रुधिर (कसव्व) व्याप्तालम्बितदीर्घवनकोलवभ्रनिकुरम्बम् । कंकेल्लि (अशोक)पल्लवोत्पंक(राशि)न्यस्तराजद्धरणीतलम् ॥५२१।। कोदण्डखङ्गघण्टामहिषासुरपुच्छव्यापृतकरया।। कात्यायनीप्रतिमया विभूषितं घोररूपया ।। ५२२॥ ततस्तं दृष्ट्वा चिन्तितं धरणेन शक्ताः सिंहाद् वने पलायितं वारणात्तथैव । सुकृताद् दुष्कृताच्च भण कुत्र पलायितुं शक्ताः ॥५२३॥ एवं च चिन्तयन् क्षिप्त: शबरैर्वन्द्र मध्ये । अथ बद्ध्वा गाढं पूर्वविरुद्धैरिव खलैः ॥५२४॥ अत्रान्तरे समागतश्चण्डिकायतनं कालसेनः । पतितश्चण्डिकायाश्चरणयोः। भणितं च सगद्गदाक्षरम् । भगवति ! यद्यपि न कृतस्त्वया मम प्रसादः, तथापि जन्मान्तरेऽपि यथा नैवं दुःखभाजनं भवामि तथा त्वया कर्तव्यमिति । 'सार्थवाहपुत्रापकारकरणेन यन्महद् दुःखं तत्त्वमेव लटक रहा था, लटके हुए बड़े-बड़े जंगली सूकरों के रुधिर से जो व्याप्त था, अशोक वृक्ष के पत्तों की राशि को रखने से जहाँ का धरातल सुशोभित हो रहा था; धनुष, तलवार, घण्टा तथा महिषासुर की पूंछ से युक्त हाथोंवाली तथा भयंकर रूपवाली कात्यायनी की प्रतिमा से विभूषित (चण्डीदेवी का वह मन्दिर) था ॥५१५-५२२॥ तदनन्तर उसे देखकर धरण ने विचार किया-सिंह और हाथी (के भय) से वन में भाग जाना सम्भव है, किन्तु पुण्य और पाप से बचकर कहाँ भागा जा सकता है ? जब वह ऐसा सोच ही रहा था तभी शबरों के द्वारा उसे समूह के बीच फेंक दिया गया और मानों पहले से ही विरोधी हों ऐसे दुष्टों द्वारा दृढ़तापूर्वक बाँध दिया गया ॥५२३-५२४॥ .... इसी बीच कालसेन चण्डिका मन्दिर में आया। चण्डी के पैरों में गिर पड़ा। गद्गद अक्षरों में बोलाभगवति ! यद्यपि तुमने मुझ पर कृपा नहीं की तथापि दूसरे जन्म में भी इस प्रकार के दुःख का पात्र न बनूं, वैसा करें। 'सार्थवाह पुत्र के प्रति मैंने जो अपकार किया, उससे उत्पन्न दुःख को तुम जानती हो'- ऐसा कहकर Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001882
Book TitleSamraicch Kaha Part 2
Original Sutra AuthorHaribhadrasuri
AuthorRameshchandra Jain
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1996
Total Pages450
LanguagePrakrit, Sanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Story, & literature
File Size11 MB
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