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नवमो भवो ]
किंतु पडिवन्नमेएहि पच्छायावओ धम्मचरण, जाया भावओ विरइपरिणई। तीए य एवंविहं चेव सामत्थं जमविराहियाए पडिवत्तिकालओ न दोग्गई पाविज्जइ । राइणा भणियं - तहावि विरुद्धयारीणि एयाणि, कहं देवलोयसंपत्ती एयाण जुज्जई त्ति । कुमारेण भणिय-ताय, सुंदरा विरइपरि संगया अप्पमाण छेदणी दुक्खाण जणणी सुहपरंपराए । इमीए संगया पाणिणो नत्थि तं कल्ला जंन पाउति । राइणा भणियं वच्छ, इयमेव कहमेयारिसाणं संजायइ, कहं वा इमीए पडिवत्तिजग्गा एवंविहेसु अकुसलेसु पयट्टति । कुमारेण भणियं - ताय, विचित्ता कम्मपरिणई । किं तु न एएसि अइस किलेससारा अकुसलपवित्ती तहाविहकम्मपरिणामओ पवित्तिमेत्तं रहिया अणुअच्चंतभावसारा रहिया अइयारेहिं संगया आगमेण निरवेवखा भवपवंचे त्ति । राणा भणियं वच्छ, एवमेयं, कहमन्नहा ईइसी पवित्ती भवं छिंदइ । कुमारेण भणियं-ताय, एवमेयं सम्ममवहारियं ताण । अन्नं च । विन्नवेमि तायं । न खलु मे रई एयम्मि नडपेड ओवमे
विरुद्धकारिणौ, किन्तु प्रतिपन्नमेताभ्यां पश्चात्तापतो धर्मचरणम, जाता भावतो विरतिपरिणतिः । तस्याश्नैवंविधमेव सामर्थ्यम्, यदविराधितया प्रतिपत्तिकालतो न दुर्गतिः प्राप्यते । राज्ञा भणितम्तथापि विरुद्धकारिणावेतौ कथं देवलोकसम्प्राप्तिरेतयोर्युज्यते इति । कुमारेण भणितम् - तात ! सुन्दरा विरतिपरिणतिः सङ्गताऽप्रमादेन छेनी दुःखानां जननी सुख (शुभ) परम्परायाः । अनया सङ्गताः प्राणिनो नास्ति तत् कल्याणं यन्न प्राप्नुवन्ति । राज्ञा भणितम् - वत्स ! इयमेव कथमेतादृशयोः सञ्जायते, कथं वाऽस्याः प्रतिपत्तियोग्या एवंविधेष्व कुशलेषु प्रवर्तन्ते । कुमारेण भणितम्तात ! विचित्रा कर्मपरिणतिः, किन्तु नैतयोरतिसंक्लेशसारा अकुशलप्रवृत्तिस्तथाविधकर्मपरिणामतः प्रवृत्तिमात्र रहितानुबन्धेन, कुशलपक्षे त्वत्यन्त भावसारा रहिताऽतिचारैः सङ्गता आगमेन निरपेक्षा भवप्रपञ्चे इति । राज्ञा भणितम् - वत्स ! एवमेतत् कथमन्यथा ईदृशी प्रवृत्तिर्भवं छिनत्ति । कुमारेण भणितम् - तात ! एवमेतत् सम्यगवधारितं तातेन । अन्यच्च, विज्ञपयामि तातम् । न खलु मे रति
वाले हैं ।' कुमार ने कहा – 'पिता जी ! ठीक है कि ये दोनों विरुद्ध कार्य करनेवाले हैं; किन्तु इन दोनों ने पश्चात्ताप से धर्माचरण प्राप्त किया, भावपूर्वक विरतिभाव उत्पन्न हुआ। उस विरति परिणति की ऐसी सामर्थ्य है कि इस विरतिपरिणति की प्राप्ति के समय से ही इसकी विराधना न करने से दुर्गति की प्राप्ति नहीं होती है । राजा ने कहा--' तो भी ये दोनों विरोधी कार्य करनेवाले हैं। इन दोनों की स्वर्गलोक की प्राप्ति कैसे ठीक है ?' कुमार ने कहा – पिता जी ! विरतिरूप परिणाम सुन्दर हैं, अप्रमाद से युक्त है, दुःखों का छेद करनेवाला है। और सुख की परम्परा को उत्पन्न करने वाला है। इससे युक्त प्राणी ऐसा कोई कल्याण नहीं, जिसे न पात हो ।' राजा ने कहा - 'पुत्र ! ऐसे लोगों के यहीं (विरतिरूप परिणाम ) कैसे उत्पन्न हो जाते हैं ? इसके पाने के योग्य प्राणी कैसे अशुभों में प्रवृत्त हो जाते हैं ?' कुमार ने कहा 'पिताजी! कर्म की परिणति विचित्र है, किन्तु इन दोनों की अत्यन्त दुःखरूप खारवाली अशुभपरिणति नहीं है, उस प्रकार के कर्म के परिणाम से प्रवृत्ति मात्र करने से ये बन्धरहित हैं, शुभपक्ष में यह अत्यन्त भावरूप सारवाली, अतिचारों से रहित, आगम से युक्त और संसार के जंजाल से रहित है ।' राजा ने कहा- 'वत्स ! ठीक है, नहीं तो ऐसी प्रवृत्ति संसार का छेद कैसे करती ।' कुमार ने कहा- 'पिताजी ! यही है, पिता जी ने ठीक समझा। दूसरी बात पिताजी से यह निवेदन करता
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