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________________ छट्ठो भवो ] सारं । भणियं च णेण - अवहर एवं वेयणं । पउत्ताइं ओसहाई; न जाओ से विसेसो । पच्चवखाओ जेहिं । तओ वेयणाइसयमोहिएण भणियं - न चएमि एवं अणेगतिब्ववेयणाभिभूयं दिवससेत्तमवि सरीरगं धारेउं । ता देह मे कट्ठाणि, पविसामि जलणं ति । एयं सोउण विद्दणा बंधवा, मुच्छियाओ पत्तीओ, परोविओ परियणो । एत्थंतरम्मि सो देवो सबरवेज्जरूवं काऊण गहियगोणत्तओ आगओ कोबि । उग्घो सियं च णेणं अरहदत्तघरसमीवे- अहं खु सबरवेज्जो फेडेमि सोसवेयणं, सुणावेमि बहिरं, अवणेमि तिमिरं, पणासेमि खसरं, उम्मूलेमि मलवाहि, पसमेमि सूलं, नासेमि जलोयरं ति । एवं सोऊण सद्दिओ सबहुमाणं । भणिओ य से परियणेगं -भद्द, अवणेहि इमस्स महोयरं; जं afri दिज्जइति । तेण भणियं - धम्मवेज्जो अहं, न उण अत्यलोलुओ; ता अलं मे अत्थेणं । कि तु किच्छसज्भो एस वाही, न सुहेणं अवेइ । एत्थ खल परिहरियध्वं नियाणं, सेवियव्यो पड़िवक्खो । नियाणं च दुविहं हवइ, इहलोइयं पारलोइयं च । तत्थ इहलोइयं अवच्छा से वणज णिओ वायाइधाउखोहो, पारलोइयं पावकम्मं । तत्थ 'इहलोइयं पिन पारलोइप संबंध मंतरेणं' ति पारलोडयं परिहरि भणितं च तेन – अपहरैतां वेदनाम् । प्रयुक्तान्योषधानि न जातस्तस्य विशेषः । प्रत्याख्यातो वैद्यैः । ततो वेदनातिशयमोहितेन भणितम् न शक्नोम्येतदनेक तीव्र वेदनाभिभूतं दिवसमात्रमपि शरीरकं धारयितुम् । ततो दत्त मे काष्ठानि, प्रविशामि ज्वलनमिति । एतछत्वा विद्राणा बान्धवाः, मूच्छिताः पन्यः, प्ररुदितः परिजनः । अत्रान्तरे स देवः शबरवैद्यरूपं कृत्वा गृहीतगोणीत्रय आगतः कौशाम्बीम् । उद्घोषितं च तेन अर्हद्दत्तगृहसमीपे । अहं खलु शबरवैद्यः स्फेटयामि शीर्षवेदनाम, श्रावयामि बधिरम् अपनयामि तिमिरम्, प्रणाशयामि खसम् ( कच्छूम् ), उन्मूलयामि मलव्याधिम्, प्रशमयामि शूलम्, नाशयामि जलोदरमिति । एतच्छ्रुत्वा शब्दितः सबहुमानम्, भणितश्च स परिजनेन - भद्र ! अपनयास्य महोदरम्, यन्मार्गितं दीयते इति । तेन भणितम् - धर्मवैद्योऽहम्, न पुनरर्थलोलुपः, ततोऽलं मेऽर्थेन । किन्तु कृच्छ्रसाध्य एष व्याधिः, न सुखेनापैति । अत्र खलु परिहर्तव्यं निदानम्, सेवितव्यः प्रतिपक्षः । निदानं च द्विविधं भवति - ऐहलौकिकं पारलौकिकं च । तत्रैहलौकिकमपथ्यासेवनजनितो वातादिधातुक्षोभः, पारलौकिकं पापकर्म । तत्र 'ऐहलौकिकमपि न पारलौकिकसम्बन्ध ५३७ इस वेदना को दूर करो । औषधियों का प्रयोग किया गया, उससे कुछ लाभ नहीं हुआ । वैद्यों ने (अच्छा कर सक की सामर्थ्य के विषय में) मना कर दिया। तब तीव्र वेदना से मूच्छित हुआ सा उसने कह दिया- 'तीव्र वेदना के कारण एक दिन भी शरीर धारण करने में समर्थ नहीं हूँ । अतः लकड़ियाँ इकट्ठी कर दो, मैं अग्निप्रवेश करूंगा।' यह सुनकर बान्धव जागे, पत्नियाँ मूच्छित हुईं, परिजन रोये। इसी बीच वह देव शबरवैद्य का रूप धारण कर तीन बैलों को लेकर कौशाम्बी में आया । उसने अर्हद्दत्त के समीप घोषणा की - 'मैं शंबरवैद्य हूँ । बड़ी से बड़ी वेदना को दूर करता हूँ, बहरों को सुनवाता हूँ, अन्धकार (नेत्र रोग) दूर करता हूँ, करेंच नामक लता से उत्पन्न खुजली नष्ट करता हूँ, संग्रहणी का उन्मूलन करता हूँ, पेटदर्द को शान्ति करता हूँ, जलोदर का नाश करता हूँ ।' यह सुनकर परिजनों ने उसे आदरपूर्वक बुलाया और कहा - 'भद्र ! इसकी व्याधि दूर कर दो, जो माँगोगे वही मिलेगा ।' उसने कहा- 'मैं धर्मवैद्य हूँ, धन का लोलुप नहीं हूँ, अतः मुझे धन से कोई प्रलोभन नहीं है, किन्तु यह रोग कठिनाई से दूर हो सकेगा, आसानी से दूर नहीं किया जा सकता । अतः परहेज करना होगा, निदान को छोड़ना होगा और प्रतिपक्ष का सेवन करना होगा । निदाग भी दो तरह का होता है - ऐहलौकिक और पारलौकिक । ऐहलौकिक निदान अथ्य सेवन से उत्पन्न वात आदि धातुओं का क्षोभ है और पारलौकिक निदान पापकर्म है । ऐहलौकिक निदान भी पारलौकिक सम्बन्ध के बिना नहीं होता, अतः Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001882
Book TitleSamraicch Kaha Part 2
Original Sutra AuthorHaribhadrasuri
AuthorRameshchandra Jain
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1996
Total Pages450
LanguagePrakrit, Sanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Story, & literature
File Size11 MB
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