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________________ ५३६ [ समराइच्चकहा तस्स । पुणो वि साहिओ, पुणो वि न परिणओ त्ति । एवं च अइक्कतो कोइ कालो। पुणो वि कहिओ असोगदत्तेण पुव्वभववइयरो, न परिणओ य अरहयत्तस्स । भणिओ य जेणं-असोगदत्तो ! किमिमिणा पलविएणं ति। तओ सो एयवइयरेणेव 'अहो सामत्थं कम्मपरिणईए' त्ति चितिऊण पडिवन्नो समलिंगं। अरहदत्तेण वि य परिणीयाओ चत्तारि सेट्ठिदारियाओ। भुजमाणस्स पवरभोए अइक्कतो कोइ कालो। तओ परिवालिऊणमणइयारं सामंणं अहाउयस्स खएण देवलोयमुवगओ असोयदत्तो। सुयं च णेणं-जहा असोगदत्तसमण गो पंचत्तमुवगओ त्ति । तओ समुन्भूओ अरहदत्तस्स सोगो । कयं उद्धदेहियं । समप्पन्नो य सो बंभलोए। दिन्नो उवओगो, विन्नाओ य ओहिणा अरहदत्तवइयरो। आभोइयं च णेणं 'न एस एवं पडिबुज्झइ' त्ति । पत्थुओ उवाओ । अयडम्मि चेव समुप्पाइओ से वाही। संजायं जलोयरं, परिसुक्काओ भुयाओ, सूर्ण चलणजुयलं, मिलाणाई लोयणाई, जड्डिया जीहा, पणट्ठा निद्दा, उवगया अरई, समुन्भूया महावेयणा। विसण्णो य एसो। सद्दाविया वेज्जा। उवन्नत्थं परिणतश्च तस्य । पुनरपि कथितः, पुनरपि न परिणत इति । एवं चातिक्रान्तः कोऽपि कालः । पुनरपि कथितोऽशोक दत्ते । पूर्व भवव्यतिकरः, न परिणतश्चार्ह दत्तस्य । भणितश्च तेनाशोकदत्तः किमनेन प्रलपितेनेति । ततः स एतद्व्यतिकरेणैव 'अहो सामर्थ्य कर्मपरिणतेः' इति चिन्तयित्वा प्रतिपन्न: श्रमणलिङ्गम् । अर्हद्दत्तेनापि च परिणीताश्चतस्रः श्रेष्ठिदारिकाः । भुञानस्य प्रवरभोगान् अतिक्रान्तः कोऽपि कालः। ततः परिपाल्यानतिचारं श्रामण्यं यथायुष्कस्य क्षयेण देवलोकमुपगतोऽशोकदत्तः। श्रुतं च तेन, यथाऽशोकदत्तश्रमणः पञ्चत्वमुपगत इति । ततः समुद्भूतोऽर्हद्दत्तस्य शोकः । कृतमौर्ध्वदेहिकम । समुत्पन्नश्च स ब्रह्मलोके । दत उपयोगः । विज्ञातश्चावधिना अर्हद्दत्तव्यतिकरः । आभोगितं च तेन 'नैष एवं प्रतिबुध्यते' इति । प्रस्तुत उपायः । अकाण्डे एव समुत्पादितस्तस्य व्याधिः । सञ्जातं जलोदरम्, परिशुष्कौ भुजौ, शूनं (शोथवत्) चरणयुगलम्, म्लाने लोचने, जडा जिह्वा, प्रनष्टा निद्रा, उपगताऽरतिः, समुद्भूता महावेदना। विषण्णश्चैषः । शब्दायिता वैद्याः । उपन्यस्तं सर्वसारम् । कोई परिवर्तन नहीं आया। इस प्रकार कुछ समय बीत गया। अशोकदत्त ने पूर्व भव का सम्बन्ध कहा, फिर भी अर्हद्दत्त नहीं बदला। उसने अशोकदत्त से कहा कि इस प्रकार प्रलाप करने से क्या ! तब वह इसी आणत से 'अहो कर्मों की सामर्थ्य' ऐसा सो कर मुनि बन गया । अर्हद्दत्त ने चार श्रेष्ठ कन्याएँ विवाहीं । उत्कृष्ट भोगों को भोगते हुए कुछ समय व्यतीत हो गया । तब श्रामण्य (मुनिधर्म) का निरतिचार पालन करते हुए आयुक्षय होने पर अशोकदत्त स्वर्ग चला गया । अर्हद्दत्त ने सुना कि अशोकदत श्रमण पंचत्व को प्राप्त हो गया। तब अर्हद्दत्त को शोफ उत्पन्न हुआ। अन्त्येष्टि कर्म किया । वह (अशोकदत्त) ब्रह्मलोक में उत्पन्न हुआ। (उसने) ध्यान लगाया । अवधिज्ञान से अर्हद्दत्त के सम्बन्ध में जाना है। उसने सोचा कि 'यह इस प्रकार प्रतिबोध को प्राप्त नहीं होता है', (तब उसने) उपाय प्रस्तुत किया । असमय ने ही उसके व्याधि (रोग) उत्पन्न कर दी । (उसे) जलोदर हो गया, दोनों भुजाएँ सूख गयीं, दोनों पर सूज गये, नेत्र म्लान पड़ गये, जीभ जड़ हो गयी, नींद नष्ट हो गयी, अरति को प्राप्त हो गया, महावेदना उत्पन्न हुई । यह दुःखी हुआ। (उसने) वैद्यों को बुलवाया, सारी बात सामने रख दी। उसने कहा Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001882
Book TitleSamraicch Kaha Part 2
Original Sutra AuthorHaribhadrasuri
AuthorRameshchandra Jain
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1996
Total Pages450
LanguagePrakrit, Sanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Story, & literature
File Size11 MB
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