SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 88
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ [ समराइच्चकहा यव्वं ति । तत्थ वि पहाणभावओ मिच्छतं । परिहरिए य तम्मि समुत्पन्नसंमत्तभावेण पइदिवसमेव आसेवियन्वाइं नाणचरणाइं, कायन्वो पढमचरिमपोरुसीसुं' चित्तमलविसोहणी जिणवयणसज्भाओ, सोयव्वो बिइयपोरुसीए हियाहियभावदंसगो तस्स अत्थो, मणदयण कायजोगेहिं न हिंसियव्वा पाणिणो, न जंपि पव्त्रमलियं, न गेव्हियव्वमदत्तयं, न सेवियन्वमबंभं न कायव्वो मुच्छाइ परिग्गहो, न भुंजियव्वं रयणीए, खायव्वा खंती, भावियन्वं मद्दवं वज्जणिज्जा माया निहणियत्वो लोहो, हिडियव्वं अपडिबद्धेणं, वसियव्वं सेलकःणणुज्जाणेसु, वज्जियव्वो आरंभो, भवियव्वं निरीहेणं । एवं च भो देवाप्पिया, अवेइ भवजलोयरं पि किमंग पुण एवं इहलोयमेत्तपडिबद्धं । तओ परियणेण चितियं 'मरणाओ वरमिमं ति । भणिओ य एसो परियणेण - भो अरहदत्त, अलं मरणेणं, एयं करेहि' त्ति । तओ 'मरणाओ वि एयनहिययरं, तहावि का अन्ना गइ' त्ति चितिऊण जंपियमणं - 'जं वो रोयइ' ति । सबरवेज्जेण भणियं - जइ एवं ता पेच्छ मे वेज्जत्ति । इयाणि चेव पन्नवेमि; किंतु ५३८ मन्तरेण' इति पारलौकिकं परिहर्तव्यमिति । तत्रापि प्रधानभावतो मिथ्यात्वम् । परिहृते च तस्मिन् समुत्पन्नसम्यक्त्वभावेन प्रतिदिवसमेवासेवितव्ये ज्ञानचरणे, वर्तव्यः प्रथमचरमपौरुष्योचित्तमलविशोधनो जिनवचन स्वाध्यायः, श्रोतव्यो द्वितीय पौरुष्यां हिताहितभावदर्शकस्तस्यार्थः, मनोवचनकाययोगैर्न हिंसितव्याः प्राणिनः, न जल्पितव्यमलीकम्, न ग्रहीतव्यमदत्तम्, न सेवितव्यमब्रह्म, न कर्तव्यो मूर्च्छया परिग्रहः, न भोक्तव्यं रजन्याम्, क्षन्तव्या क्षान्तिः, भावयितव्यं मार्दवम्, वर्जनीया माया निहन्तव्यो लोभः, हिण्डितव्यमप्रतिबद्धेन, वस्तव्यं शैलकाननोद्यानेषु, वर्जयितव्य आरम्भः, भवितव्यं निरीहेण । एवं च भो देवानुप्रिय ! अपैति भवजलोदरमपि किमङ्ग पुनरेतदिहलोकमात्रप्रतिबद्धम् । ततः परिजनेन चिन्तितम् -- 'मरणाद् वरमिदम्' इति । भणितश्चैष परिजनेन - भो अर्हद्दत्त ! अलं मरणेन, एतत्कुर्विति । ततो 'मरणादप्येतदधिकतरम्, तथापि काऽन्या गतिः' इति चिन्तयित्वा जल्पितमनेन 'यद् वो रोचते' इति । शबरवैद्येन भणितम् - यद्येवं ततः प्रेक्षस्व मे वैद्यशक्तिम् । इदानीमेव प्रज्ञापयामि, पारलौकिक निदान से बचना चाहिए। उसमें प्रधान भाव मिथ्यात्व है । मिथ्यात्व के दूर हो जाने पर उत्पन्न हुए सम्यक्त्व भाव से प्रतिदिन ज्ञान और चारित्र का सेवन करना चाहिए। प्रथम और अन्तिम पौरुष में चित्त के मल को विशुद्ध करने वाले जिनवचन का स्वाध्याय करना चाहिए। द्वितीय पौरुष में हित और अहित भाव को दर्शाने वाला उसका ( जिनवचनों का ) अर्थं सुनना चाहिए। मन, वचन और काय के योग से किसी भी प्राणी की हिंसा नहीं करनी चाहिए, झूठ वचन नहीं बोलना चाहिए, बिना दी हुई वस्तु को ग्रहण नहीं करना चाहिए, अब्रह्मचर्य का सेवन नहीं करना चाहिए, मूर्च्छा (ममत्वभाव) से परिग्रह नहीं करना चाहिए, रात्रि भोजन नहीं करना चाहिए क्षमा भाव धारण करना चाहिए। मार्दत्र की भावना करना चाहिए, माया को छोड़ना चाहिए, लोभ नष्ट करना चाहिए। बेरोक-टोक भ्रमण करना चाहिए, पर्वत, वन और उद्यानों में रहना चाहिए, आरम्भ का त्याग करना चाहिए और कामनारहित होना चाहिए। इस प्रकार हे देवानुप्रिय ! संसार रूप जलोदर भी मिट जाता है, इस ऐहलौकिक जलोदर की तो बात ही क्या ?" तब परिजन ने सोचा - मरण से यही अच्छा ।' और उससे कहा - 'हे अर्हद्दत्त ! मरना व्यर्थ है, यही करो । तब 'मरण से तो यह अच्छा है, अन्य क्या चारा है' ऐसा सोचकर इसने कहा- 'जो आप लोगों का उचित लगे ।' शबरवैद्य ने कहा - 'यदि ऐसा है तो मेरी बंद्य-शक्ति देखो। इसी समय निवेदन करता हूँ, किन्तु १. पोरिसीसुक । २, तस्सत्थो के । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001882
Book TitleSamraicch Kaha Part 2
Original Sutra AuthorHaribhadrasuri
AuthorRameshchandra Jain
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1996
Total Pages450
LanguagePrakrit, Sanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Story, & literature
File Size11 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy