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निच्छिएण होयव्वं, न दायबो मोहपसरो, न सोयव्वं वयण कल्लाणमिताणं, न कायव्वा कुसीलसंसग्गी, न बहु मन्नियव्वं इहलोयवत्थु, न मोतवो अहं, न खंडियन्वा मम आणत्तो' । पडिस्सुयमणेणं । तओ आलिहियं वेज्जेण मंतमंडलं, मिलिओ नयरिजणवओ, ठाविओ मंडलम्मि अरहदत्तो, सव्वजणसमक्खमेव अहिमतिऊण पउत्ताइं ओसहाई; ठइओ धवलपडएणं, सुमरिया माइट्ठाणविज्जा, देवसत्तीए कोलाहली कओ एसो। तओ मोयावेऊण अक्कंदभेरवे, लोट्टाविऊण महियलम्मि, भंजाविऊण अंगमंगाई, गमिउं विचित्तमोहे जंबालकलमलओ अइभीसणो रूवेणं असोयव्व मासी[सवणपंथा
ओ पुट्ठो कि पुण दं सणस्स] दुरहिांधिणा देहेण नियरूवसरिसअटठत्तरवाहिसयपरिवारिओ विवागसव्वस्सं शिव पावकम्मस्स निफेडिओ से मुत्तिमंतो चेव मायावाहि ति। दिट्ठो य लोएणं । तओ विम्हिओ लोओ। कओ णेण कोलाहलो। अहो महाणभावया सबरवेज्जस्स, अउव्ववेज्जमग्गेण अदिटुपुटवेण अम्हारिसेहि निप्फेडिओ मत्तिमंतो चेव वाहि त्ति । अहो अच्छरिय; पउणो अरहदत्तो, बाहिविगमेण समागया से निद्दा । थेववेलाए पडिबोहिओ सबरवेज्जेणं । भणिओ य णेणं-भद्द, पेच्छप्पणोच्चयं महापावकिन्तु निश्चितेन भवितव्यम्, न दातव्यो मोहप्रसरः, न श्रोतव्यं वचनमकल्याणमित्राणाम, न कर्तव्यः कुशोलसंसर्गः, न बहु मानयितव्यमिहलोकवस्तु, न मोक्तव्योऽहम्, न खण्डयितव्या ममाज्ञप्तिः । प्रतिश्रतमनेन । तत आलिखितं वैद्यन मन्त्रमण्डलम्, मिलितो नगरीजनवजः, स्थापितो मण्डलेऽर्हद्दतः सर्वजनसमक्षमेवाभिमन्त्र्य प्रयुक्तान्यौषधानि, स्थगितो धवलपटेन, स्मृता मातृस्थानविद्या, देवशक्त्या कोलाहली कृत एषः । ततो मोचयित्वाऽऽक्रन्दभैरवान् लोटयित्वा महोतले भजयित्वाऽङ्गाङ्गानि गमयि वा विचित्रमोहान् (जम्बालकलमलओ दे०) दुर्गन्धी अति भीषणो रूपेग अश्रोतव्यभाषी [श्रवणपथस्यापि च स्पष्ट: किं पुनदर्शनस्य] दुरभिगन्धिना देहेन निजरूपसदृशाष्टोत्तरव्याधिशतपरिवृतो विपाकसर्वस्वमिव पापकर्मणो निष्फेटितस्तस्य मूर्तिमानिव मायाव्याधिरिति । दृष्टश्च लोकेन । ततो विस्मितो लोकः । कृतोऽनेन कोलाहलः । अहो महानुभावता शबरवैद्यस्य, अपर्ववैद्यमार्गेण अदृष्टपूर्वेणास्मादृशैनिष्फेटितो मूर्तिमानिव व्याधिरिति । अहो आश्चर्यम् । प्रगुणोऽर्हद्दत्तः, व्याधिविगमेन समागता तस्य निद्रा । स्तोकवेलायां प्रतिबोधित: शबरवैद्येन । भणितश्चानेन -भद्र ! प्रेक्षस्व आत्मनश्चैव महापापकर्मव्याधिम् । ततस्तथा कुर्याः, न निश्चित होना चाहिए, मोह को नहीं फैलाना चाहिए, अकल्याणकारी मित्र के वचन नहीं सुनना चाहिए, कुशील सेवन नहीं करना चाहिए, ऐहलौकिक पदार्थों को अधिक मान नहीं देना चाहिए, मुझे नहीं छोड़ना, मेरी आज्ञा का खण्डन (उल्लंघन) नहीं करना।' इसने अंगीकार किया। तब वैद्य ने मन्त्र का मण्डल (समूह) लिखा, नगरी के मनुष्य मिले, अर्हद्दत्त को मण्डल में बैठाया, सभी लोगों के समक्ष अभिमन्त्रित कर औषधियां प्रयुक्त की। सफेद वस्त्र से ढक दिया, मातृस्थान विद्या स्मरण की, देव की शक्ति से इसने कोलाहल किया। तब चिल्लाते हुए भैरवों से छुड़ाकर, पृथ्वी पर लोटकर, अङ्ग-अङ्ग को तोड़ते हुए विचित्र मोह को प्राप्त होकर, दुर्गंधयुक्त अति भीषण रूप से अश्रोतव्यभासी (कानों से नहीं सुनने योग्य, देखने की तो बात ही क्या), बदबूदार देह से अपने रूप के सदृश आठ सौ व्याधियों से घिरे हुए, पापकर्म के परिपूर्ण फल के समान मानो शरीरधारिणी माया व्याधि निकली। लोगों ने देखा, तब लोग विस्मित हुए। इसने कोलाहल किया। शबरवैद्य का महान् प्रभाव आश्चर्ययुक्त है जो कि अपूर्व वैद्य मार्ग से हम लोगों ने जिसे पहले नहीं देखा, ऐसी व्याधि को मूर्तिमान के समान निकाल दिया। अरे बड़े आश्चर्य की बात है ! अर्हद्दत्त ठीक हो गया, रोग के नष्ट होने से उसे नींद आ गयी। थोड़ी देर में शबरवैद्य ने उसे जगाया और उससे कहा – 'भद्र ! अपनी महा पापकर्मरूप व्याधि को
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