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________________ ५४० [समराइचकहा कम्मवाहिं । ता तहा करेज्जासि, न उणो जहा इमेणं घेप्पसि त्ति । दिट्ठो अरहदत्तेणं । विम्हिओ एसो । जायं से भयं । भणिओ य सबरवेज्जेणं- भद्द, मोयाविओ ताव तुमं मए इमाओ पावकम्मवाहिकिलेसाओ, पाविओ आरोग्गसुहेक्कदेसं । अओ परं भद्देण सयमेव तहा कायवं, जहा सयलपावकम्मवाहिविगमो होइ, तविगमे य संपज्जिस्सइ ते जम्मजरामरणविरहियं एगंतनिप्पच्चवायं आसंसारमपत्तपुव्वं' आरोग्गसुहं ति । अहं पि गहिओ चेव इमिणा पावकम्मवाहिणा; अवणीया य भवओ विय काइ मत्ता इमस्स मए, सेसावणयणत्थं च 'अजोगो उत्तिमोवायरसत्ति पयट्टो इमिणा पयारेणं । ता तुम पि उत्तमोवायं वा पतिवज्ज एयं वा मज्झ संतियं चेट्टियं ति । लोएण भणियं-'को उण' एत्थ उत्तमोवाओ। सबरवेज्जण भणियं-जिणसासणम्मि पन्वज्जापवज्जणं । तत्थ खल पडिवन्नाए पव्वज्जाए परिवालिज्जमाणीए जहाविहिं न संभवइ एस वाही, सिग्घमेव य अवेइ अवसेसं ति । ईइसा य मज्झ जाई, जेण न होइ सा इमीए सयलदुक्खसेलवज्जासणी महापव्वज्जा । तुम पुण भद्द उत्तमजाइगुणओ जोग्गो इमीए महापव्वज्जाए। ता एयं वा गेण्ह, गहियगोणतओ मए वा सह विहरसु पुनर्यथाऽनेन गृह्यसे इति । दृष्टोऽर्हद्दत्तेन । विस्मित एषः जातं तस्य भयम् । भणितश्च शबरवैद्येनभद्र ! मोचितस्तावत् त्वं मयाऽस्मात् पापकर्मव्याधिक्लेशात, प्रापित आरोग्यसुखैकदेशम् । अतः परं भद्रेण स्वयमेव तथा कर्तव्यम् यथा सकलपापकर्मव्याधिविगमो भवति, तद्विगमे च सम्पत्स्यते ते जन्मजरामरणविरहितमेकान्तनिष्प्रत्यवायमासंसारमप्राप्तपूर्व मारोग्यसुखमिति । अहमपि गृहीत एवानेन पापकर्मव्याधिना, अपनीता च भवत इव काचिन्मात्राऽस्य मया, शेषापनयनार्थं च 'अयोग्य उत्तमोपायस्य' इति प्रवृत्तोऽनेन प्रकारेण । ततस्त्वमपि उत्तमोपायं वा प्रतिपद्यस्व, एतद्वा मम सत्कं चेष्टितमिति । लोकेन भणितम्-क: पुनरत्र उत्तमोपायः। शबरवैद्येन भणितम्-जिनशासने प्रव्रज्याप्रपदनम् । तत्र खलु प्रतिपन्नायां प्रव्रज्यायां परिपाल्यमानायां यथाविधि न सम्भवत्येष व्याधिः, शीघ्रमेव चापैत्यवशेषमिति । ईदशी च मम जाति:, येन न भवति साऽस्यां सकलदुःखशैलवज्राशनिमहाप्रव्रज्या । त्वं पुनर्भद्र ! उत्तमजातिगुणतो योग्योऽस्याः महाप्रव्रज्यायाः । तत एतां गृहाण, गृहोतगोणत्रयो मया वा सह विहर इति । लोकेन भणितम्-भो ! सुन्दरमिदम्, देखो। अतः ऐसा उपाय करो जिससे इससे पुन: ग्रस्त न हो।' अर्हद्दत्त ने देखा । वह विस्मित हो गया । उसका भय जाता रहा। शबरवैद्य ने कहा--'भद्र ! तुम मेरे द्वारा पापकर्मरूप रोग के क्लेश से मुक्त कर दिये गये हो और आरोग्य रूप सुख के स्थान पर पहुंचा दिये गये हो, अतः भद्र को स्वयं वैसा करना चाहिए जिससे समस्त कर्मरूप व्याधियाँ दूर हों, कर्मरूप व्याधियों के दूर होने पर तुम जन्म, जरा और मरण से रहित, एकान्त बाधा से रहित, संसार में जिसकी प्राप्ति पहले कभी नहीं हुई, ऐसे आरोग्य रूप सुख को प्राप्त होगे । मुझे भी इस पापकर्मरूप व्याधि ने ग्रहण कर लिया था, आपके समान इसकी कुछ मात्रा को मैंने दूर कर दिया है, शेष को दूर करने के लिए उत्तम उपाय के अयोग्य हूँ। अतः आप उत्तम उपाय को प्राप्त हों, यही मेरी चेष्टा है।' लोगों ने कहा'यहाँ उत्तम उपाय क्या है ?' शबर वैद्य ने कहा--'जिनशासन में दीक्षा धारण करो। इसके प्राप्त होने तथा पालन करने पर यह रोग नहीं उत्पन्न होता है और शेष बचा शीघ्र दूर हो जाता है। मेरी जाति ऐसी है कि समस्त दुःखरूप पर्वतों को वज्र के समान यह प्रव्रज्या नहीं होती है। भद्र ! तुम उत्तम जाति में उत्पन्न होने रूप गुण के कारण इस प्रव्रज्या के योग्य हो, अतः इसे ग्रहण करो अथवा तीन बैल लेकर मेरे साथ विचरण करो।' १. -मेवमपत्त-क । २. वुण-क, ख । For Private & Personal Use Only Jain Education International www.jainelibrary.org
SR No.001882
Book TitleSamraicch Kaha Part 2
Original Sutra AuthorHaribhadrasuri
AuthorRameshchandra Jain
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1996
Total Pages450
LanguagePrakrit, Sanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Story, & literature
File Size11 MB
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