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छट्ठो भवो ]
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त्ति । लोएण भणियं- भो सुंदरमिम, तुज्झ भाया वि पव्वइओ चेव; ता एयं ववससु' ति।
तओ अरहदत्तेण अणिच्छमाणेणावि चित्तेणं पडिवन्नमेय। आगओ कोइ तहाविहो साह। तओ पडिवन्नो एयस्त समीवे पव्वज्जं दव्वओ, न उण भावओ ति । गओ तबरवेज्जो।
____ अइक्कंता कइवि दियहा । मिच्छत्तोदएणं च समुप्पन्ना इमस्स अरई। तओ परिच्चइय पोरुसं, अणवेक्खिऊण निययकुलं, अगणिऊण वयणिज्जं, अणालोइऊण आयइं परिच्चत्तमणेण दवलिंग। आगओ सगिहं। पवतो पडिकलसेवणे । गया कइवि वासरा। आभोइयं देवेण । कओ से पुन्ववाही। विसण्णो एसो। निदिओ लोएणं । संसारसिणेहेणं गविट्ठो से बंधवेहि सबरवेज्जो। लद्धो देव्वजोएणं । भणिओ य णेहि - भद्द, कुविओ सो तस्स वाही। ता करेहि से अणुग्गह, उवसामेहि एवं' ति। सबरवेज्जेण भणियं-कि कयमपच्छति। बंधहि भणियं-भद्द, लज्जिया अम्हे तस्स चरिएणं; तहावि करेह अणग्गहं ति । सबरवेज्जेण भणियं-जइ एवं पुणो वि पव्वयइ। तओ अणिच्छमाणो विहियएण पव्वडओ। तहेव उवसामिऊण वाहि गओ सबरवेज्जो।
तव भ्राताऽपि प्रव्रजित एव, तत एतद् व्यवस्येति ।
ततोऽर्हद्दत्तेनानिच्छताऽपि चित्तेन प्रतिपन्नमेतद् । आगतः कोऽपि तथाविधः साधुः । ततः प्रतिपन्न एतस्य समीपे प्रव्रज्यां द्रव्यतः, न पुनर्भावत इति । गतः शबरवैद्यः ।
अतिक्रान्ताः कत्यपि दिवसाः । मिथ्यात्वोदयेन च समुत्पन्नाऽस्यारतिः। ततः परित्यज्य पौरुषम् अनपेक्ष्य निजकुलम्, अगणयित्वा वचनीयम् , अनालोच्यायति परित्यक्तमनेन द्रव्यलिङ्गम् । आगतः स्वगृहम् । प्रवृत्तः प्रतिकूलसेवने। गताः कत्यपि वासराः । आभोगितं देवेन। कृतस्तस्य पूर्वव्याधिः । विषण्ण एषः । निन्दितो लोकेन । संसारस्नेहेन गवेषितस्तस्य बान्धवैः शबरवैद्यः । लब्धो दैवयोगेन । भणितश्च तैः-भद्र ! कुपितः स तस्य व्याधिः । ततः कुरु तस्यानुग्रहम् , उपशमय एतमिति । शबरवैद्येन भणितम्-किं कृतमपथ्यमिति । बान्धवैर्भणितभ- भद्र ! लज्जिता वयं तस्य चरितेन, तथापि कुर्वनुग्रहमिति । शबरवैद्येन भणितम्-यद्येवं पुनरपि प्रव्रजति । ततोऽनिच्छन्नपि हृदयेन प्रव्रजितः । तथैवोपशमय्य व्याधि गतो शबरवैद्यः ।
लोगों ने कहा-'यह सुन्दर है, आपका भाई भी प्रवजित हुआ था अतः इसी का निश्चय करो।'
तब अर्हद्दत्त ने मन में न रहते हुए भी इसे स्वीकार कर लिया। कोई उस प्रकार का साधु आया । वह इसके समीप द्रव्य से दीक्षित हो गया, भाव से नहीं । शबरवैद्य चला गया।
कुछ दिन बीत गये । मिथ्यात्व के उदय से उसे (तपस्या के प्रति) अरुचि पैदा हुई । तब पुरुषार्थ को त्यागकर अपने कल की अपेक्षा न कर, निन्दा को न मानकर, भावी कल को न सोचकर इसने द्रव्यलिंग का त्याग कर दिया । अपने घर आ गया। प्रतिकूल वस्तुओं के सेवन करने में प्रवृत्त हो गया। कुछ दिन बीत गये । देव को ज्ञात हुआ । उसकी पहले की व्याधि (देव ने) उत्पन्न कर दी। यह खिन्न हुआ। लोगों ने निन्दा की। संसार के स्नेह से उसके बान्धवों ने शबरवैद्य को खोजा । दैवयोग से (वह वैद्य) मिल गया। उन्होंने कहा – 'भद्र ! यह व्याधि कुपित हो गयी, अतः उसके ऊपर अनुग्रह कीजिए, इसे शान्त कर दीजिए।' शबरवैद्य ने पूछा-'क्या अपथ्य सेवन किया है ?' बान्धवों ने कहा-- 'भद्र ! हम लोग उसके आचरण से लज्जित हैं, तथापि अनुग्रह करो।' शबरवैद्य ने कहा-'यदि ऐसा है तो पुनः दीक्षा धारण कर ले ।' तब हृदय से न चाहता हुआ भी वह प्रवजित हो गया। उसी प्रकार व्याधि का उपशमन कर शबरवैद्य चला गया।
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