________________
५४२
[ समराइच्चकहा ___ अइक्कतेसु कइवयदिणेसु तहेव उप्पव्वइओ। 'आहोइयं देवेणं । कओ से तिव्वयरवेयणो वाही । भणिओ य बंधहिं -कि पुण तुमं एवं पि अताणयं न लखेसि। ता परिच्चयसु वा जीवियं, करेहि वा तत्स वयगं ति । तेण भणियं-करेमि संपयं, जइ तं पेच्छामि ति। गवेसिओ सबरवेज्जो, बंधहि दिट्टो य देव्वजोएणं। लज्जावण यवयणं भणिओ य हिं-अजुत्तं चेव ववसियं ते पुत्तएण, गहिओ य एसो तिव्वयरेण वाहिणा; ता को उण इह उवाओ त्ति। सबरवेज्जेण भणियं-नत्यि तस्स उवाओ; विसयलोलुओ ख एसो पुरितयाररहिओ य। ता थेवमियमेयस्स, बहुयबराओ य अग्गओ तिरियनारएसु विडंबणाओ। तहावि तुम्हाण उवरोहओ चिकिच्छामि एवकसि जइ मए चेव सह हिंडइति। पडिवन्नमहि, साहियं च अरहदत्तस्स । संखुद्धो य एसो। तहावि 'का अन्ना गइ' त्ति चितिऊण पडिवन्नमणेण । आणिओ सबरवेज्जो। भणिओ य णेणं-भद्द, पच्छिमा खेड्डिया; ता सुंदरेण होयव्यं । सव्वहा जमहं करेमि, तं चेव तुमए कायव्वं; न मोत्तत्वो य अहयं ति । पडिवन्नं अरहदत्तेणं । तिगिच्छिओ य एसो। भणिओ य लोएणं --भो सत्थवाहपुन, मा संपयं पि कुपुरिस
अतिक्रान्तेषु कतिपयदिनेषु तथैवोत्प्रवजितः। आभोगितं देवेन। कृतस्तस्य तीव्रतरवेदनो व्याधिः । भणितश्च बान्धवैः-किं पुनस्त्वमेवमपि आत्मानं न लक्षयसि । ततः परित्यज वा जीवितं कुरु वा तस्य वचनमिति । तेन भणितम् – करोमि साम्प्रतम्, यदि तं पश्यामीति । गवेषितः शबरवैद्यो बान्धवैः, दृष्टश्च दैवयोगेन। लज्जावनतवदनं भणितश्च तैः-अयुक्तमेव व्यवसितं ते पुत्रकेण, गृहीतश्चैष तीव्रतरेण व्याधिना, ततः कः पुनरिहोपायः इति । शबरवैद्येन भणितम्-नास्ति तस्योपायः, विषयलोलुपः खल्वेष पुरुषकाररहितश्च । ततः स्तोकमिदमेतस्य, बहुतराश्चाग्रतः तिर्यग्नारकेषु विडम्बनाः । तथापि युष्माकमुपरोधतश्चिकित्साम्येकशः, यदि मयैव सह हिण्डते इति । प्रतिपन्नमेभिः, कथितं चाहद्दतस्य । संक्षुब्धश्चैषः । तथापि 'काऽन्या गतिः' इति चिन्तयित्वा प्रतिपन्नमनेन । आनीतः शबरवैद्यः। भणितश्च तेन-भद्र ! पश्चिमा (खेड्डिया दे०) द्वारिका (चरम उपाय इत्यर्थः), ततः सुन्दरेण भवितव्यम् । सर्वथा यदहं करोमि तदेव त्वया कर्तव्यम्, न मोवतव्यश्चाहमिति । प्रतिपन्नमर्हद्दत्तेन । चिकित्सितश्चैषः । भणितश्च लोकेन-भो सार्थवाहपुत्र ! मा साम्प्रत___ कुछ दिन बीत जाने पर उसी प्रकार प्रव्रज्या छोड़ दी। देव को ज्ञात हुआ। उसने उसे तीव्रतर व्याधि उत्पन्न कर दी। बान्धवों ने कहा- 'तुम अपने आपको भी नहीं देखते हो । अतः या तो जीवन का त्याग कर दो या उसके वचनों का पालन करो।' उसने कहा कि यदि वह (शबरवैद्य) मिल जाय तो करूंगा। बान्धवों ने शबरवैद्य को ढूंढ़ा, दैवयोग से दिखाई पड़ गया। लज्जा से चेहरे झुकाकर उन्होंने कहा- 'उस पुत्र ने अयोग्य कार्य किया, अतः उसे तीव्रतर व्याधि ने घेर लिया, अत: अब क्या उपाय है ?' शबरवैद्य ने कहा- 'कोई उपाय नहीं है, यह विषयलोलुप और पौरुषहीन है अतः यह (वेदना) तो थोड़ी-सी ही है, आगे तिर्यंच और नरक गतियों में और भी अधिक पीड़ा होगी; तथापि आप लोगों के अनुरोध से एक बार पुनः चिकित्सा करता हूँ। यदि वह मेरे साथ भ्रमण करना स्वीकार करे तो।' इन लोगों ने स्वीकार कर लिया और अर्हद्दत्त से कहा। यह क्षुभित हुआ, तथापि अन्य क्या उपाय है ? ऐसा सोचकर इसने अंगीकार कर लिया। शबरवैद्य को लाया गया। उसने कहा-'भद्र, उत्कृष्ट उपाय है, अतः (आपको) ठीक हो जाना चाहिए; किन्तु जो मैं करता हूँ वही तुम्हें करना होगा और मुझे नहीं छोड़ना होगा।' अर्हद्दत्त ने स्वीकार कर लिया। इसकी चिकित्सा की गयी । लोगों ने कहा
१. आभोइर्य-क । २. दिव-ख। ३. तेण-क।
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org