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अट्ठमो भवो ]
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बहवे । भणिया य णेण भो भो एवं देवीरूपधारिणि दुदुजक्र्खािण कयत्थिऊण निद्दयं लहुं निव्वासेह | तओ तेहि 'जं देवो आणवेइ' त्ति भणिऊण पुव्व वेरिएहि विय 'आ पावे, आ पावे' त्ति भणमाणेहि गहिया अहं केणावि केसेसु, अवरेण उत्तरीए, अन्नेण बाहाहिं, कयत्थिया नरवइपुरओ, नीणिया बाहिं । तत्थ विय अहिरं कत्थिऊण, जहा काइ दुट्ठसीला निव्वासीयइ, तहा निव्वासिय म्हि । विमुक्का नयरarranta | भणिया य हिं-आ पावे, जइ पुणो रायभवणं पविससि, तओ मुया अम्हाण हत्थओ ति । नियता रायपुरिसा । तओ चितियं मए-हंत किमेयं ति । अहो मे पावपरिणई, पेच्छ कि (मे) पाविति । अहो णु खलु निरवराहा विपाणिणो पुव्वदुच्चरिएहिं एयं कयत्थिज्जंति । ता अलं मे जीविएण, वावामि अत्ताजयं । न अन्नो वावायणोवाओ त्ति गंतूणमेयमदूरोवलक्खिज्जमाणपव्वयं भंजेमि अत्तापयंति पयड्डा गिरिसंमुहं, पत्ता य महया परिकिलेपेण । समाढत्ता य आरुहिउं । दिट्ठा गिरिगुहागह साहूहि । समागओ य तओ अणेवगुण र रणभू सिओ दिव्यमाणो तवतेएण सुट्टिओ परलोयक्खे वच्छलो दुहियसत्ताणं समुत्पन्नदिव्वनागो देसओ संसाराडवीए चिंतामणी समीहियसुहस्स
राज्ञा शब्दायिता अष्टप्राहरिका: । समागता बहवः । भणिताश्च तेन - भो भो ! एतां देवीरूपधारिणीं दुष्टयक्षिणी कदर्थयित्वा निर्दयं लघु निर्वासयत । ततस्तैः 'यद् देव आज्ञापयति' इति भणिवा पूर्ववैरिकैरिव 'आः पापे आः पापे' इति भणद्भिः गृहीताऽहं केनापि केशेषु, अपरेणोत्तरीये, अन्येन बाह्वोः कदर्थिता नरपतिपुरतः । नीता बहिः । तत्रापि चाधिकतरं कदर्थयित्वा यथा काऽपि दुष्टशीला तिर्वास्यते तथा निर्वासिताऽस्मि । विमुक्ता नगरकाननसमीपे । भणिता च तैः आः पापे ! यदि पुना राजभवनं प्रविशति ततो मृताऽस्माकं हस्तत इति निवृत्ता राजपुरुषाः । ततश्चिन्तितं मया हन्त किमेतदिति । अहो मे पापपरिणतिः, पश्य किं प्राप्तमिति । अहो नु खलु निरपराधा अपि प्राणिनः पूर्वदुश्चरितैरेवं कदर्थ्यन्ते । ततोऽलं मे जीवितेन । व्यापादयाम्यात्मानम् । नान्यो व्यापादनोपाय इति गत्वा एतमदूरोपलक्ष्यमाणपर्वतं भनज्मि आत्मानमिति प्रवृत्ता गिरिसम्मुखम् । प्राप्ता च महता परिक्लेशेन । समारब्धा चारोढुम् । दृष्टा गिरिगुहागतः साधुभिः । समागतस्ततोsनेकगुणरत्नभूषितो दीप्यमानो तपस्तेजसा, सुस्थितः परलोकपक्षे वत्सलो दुःखितसत्त्वानां समुत्पन्नदिव्यज्ञानो देशकः संसाराटव्यां चिन्तामणिः समीहितसुखस्यानेक साधुपरिवृतः सुगृहीतनामा
अन्तर राजा ने आठ प्रहरियों को बुलाया। बहुत से आ गये। ( उनसे ) राजा ने कहा- 'हे हे ! इस महारानी का रूप धारण करनेवाली उस दुष्ट यक्षिणी को तिरस्कार कर शीघ्र ही निर्दयतापूर्वक निकाल दो।' अनन्तर जो महाराज अ'जा दें' - ऐसा कहकर मानो पूर्ववैरियों के समान उन्होंने अरी पापिन ! अरी पापिन ! ऐसा कहते हुए किसी ने मेरे बाल पकड़े, किसी ने उत्तरीय (ओड़नी, दुपट्टा) पकड़ा, किसी दूसरे ने दोनों भुजाएँ पकड़ी (और) राजा के सामने तिरस्कार किया। बाहर ले गये । वहाँ भी अत्यधिक तिरस्कार कर जैसे कोई दुराचारिणी स्त्री निकाली जाती है उसी प्रकार मुझे निकाल दिया। नगर के वन के समीप मुझे छोड़ दिया गया और उन्होंने कहा - 'अरी पापिन ! यदि फिर से राजभवन में प्रवेश करोगी तो हमारे हाथ से मारी जाओगी ।' राजपुरुष लौट गये । अनन्तर मैंने सोचा- 'हाय ! यह क्या ? ओह ! मेरे पान का फल, देखो क्या पाया ! ओह निपराध भी प्राणी पहले के दुश्चरितों के कारण इस प्रकार तिरस्कृत होते हैं । अतः मेरा जीना व्यर्थ है । मैं अपने आपको मारती हूँ | मारने का अन्य कोई उपाय नहीं है अतः इस समीप से दिखाई देनेवाले पर्वत पर जाकर अपने आपको गिराती हूँ - ऐसा सोचकर पर्वत के सम्मुख गयी। बड़े क्लेश से पहुँची । चढ़ना आरम्भ किया । पर्वतीय गुफा में आये हुए साधुओं ने मुझे देखा । अनन्तर अनेक गुणरूपी रत्नों से भूषित, तप के तेज से देदीप्यमान, परलोक पक्ष में
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