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________________ ७६० [ समराइच्चकहा अणेयसाहुपरियरिओ सुगिहोयनामो भयवं गुरु ति। तं च दळूण अवगओ विय म किलेसो, समद्धासिया विय धम्मेण । वंदिओ सविणयं, धम्मलाहिया य णेण भणिया सबहुमाणं - वच्छे सुसंगए, न तए संसप्पियव्वं । ईइसो एस संसारो, आवयाभायणं खु एत्थ पाणिगो; अहिहूया महामोहेण न पेच्छंति परमत्थं, न सुणंति 'परममित्ताणं वयणं, पयति अहिएसु, बंधंति तिव्वकम्मयाइं, विउडिज्जति तेहि. न छुट्टति पुव्वदुक्कडाणं विणा वीयरागवयेणकरणेणं ति । तओ मए भणियं- भयवं एवमेयं; अह कि पूण मए कयं पावकम्म, जस्स ईइसो विवाओ ति। भयवया भणियं - वच्छे सुण जस्स विवागसेसमेयं । मए भणियं-भयवं, अवहिय म्हि । भयवया भणियं - वच्छे, सुण।। ___ अस्थि इहेव भारहे वासे उत्तरावहे विसए बंभउरं नाम नयरं। तत्थ बंभसेणो नाम नरवई अहेसि। तस्स बहुमओ विउरो नाम माहणो, पुरंदरजसा से भारिया। ताणं तुमं इओ अईयनवम. भवम्मि चंदजसाहिहाणा धूया अहेसि त्ति, वल्लहा जणणिजणयाणं । जिगवयणभावियत्तणेण ताणि भगवान् गुरुरिति । तं च दृष्ट्वागत इव मे क्लेशः, समध्यासितेव धर्मेण । वन्दितः सविनयम्, धर्मलाभिता च तेन भणिता सबहुमानम् --वत्से सुमङ्गते ! न त्वया सन्तप्तव्यम् । इदृश एष संसारः, आपभाजनं खल्वत्र प्राणिनः, अभिभूता महामोहेन न पश्यन्ति परमार्थम्, न शृण्वन्ति परममित्राणां वचनम्, प्रवर्तन्ते अहितेषु, बध्नन्ति तीवकर्माणि. विकुटयन्ते (विडम्ब्यन्ते) तैः, न छुटयन्ते पूर्वदुष्कृतेभ्यो विना वीतरागवचन करणेनेति । ततो मया भणितम्-भगवन् ! एवमेतद्, अथ कि पुनर्म या कृतं पापकर्म, यस्येदृशो विपाक इति । भगवता भणितम्- वत्से ! शृणु, यस्य विपाव शेषमेतद् । मया भणितम् -भगवन् ! अवहिताऽस्मि । भगवता भणितम्-वत्से ! शृणु। अस्ति इहैव भारतवर्षे उत्तरापथे विषये ब्रह्मपुरं नाम नगरम् । तत्र ब्रह्मसेनो नाम नरपतिरासीत् । तस्य बहुमतो विदुरो नाम ब्राह्मणः, पुरन्दरयशास्तस्य भार्या । तयोस्त्वमितोऽतीतनवमभवे चन्द्रयशोऽभिधाना दुहिता आसीदिति, वल्लभा जननीजनकयोः। जिनवचनभावितत्वेन तो भलीभाँति स्थित, दुःखित प्राणियों के प्रति प्रेम करनेवाले, जिन्हें दिव्यज्ञान उत्पन्न हुआ था, संसाररूपी वन में में जो रास्ता दिखानेवाले थे, इष्ट मुखों के लिए जो चिन्तामणि थे (तथा) अनेक साधुओं से घिरे हुए थे ऐसे सुगृहीत नाम वाले भगवान् गुरु आये। उन्हें देखकर मानो मेरा क्लेश दूर हो गया। धर्म में मानो स्थित हो गयी। (मैंने) विनयपूर्वक (उनकी) वन्दना की और उन्होंने धर्मलाभ देकर सम्मानपूर्वक कहा ... 'पुत्री सुसंगता, तुम दुःखी मत होओ, यह संसार ऐसा ही है, यहाँ प्राणी आपत्ति के पात्र होते हैं, महामोह से अभिभूत होते हैं, परमार्थ को नहीं देखते हैं, परम (हितैषी) मित्रों के वचन नहीं सुनते हैं, अहित में प्रवृत्त होते हैं, तीव्र कर्मों को बांधते हैं, उन कर्मों के द्वारा नष्ट किये जाते हैं, वीतराग के वचनों का पालन किये बिना पूर्वजन्म के पापों से नहीं छूटते हैं।' अनन्तर मैंने कहा-'भगवन् ! यह ठीक है (मैं पूछती हूं कि) मैंने कौन-सा पाप कर्म किया, जिसका ऐसा फल मिला ?' भगवान् ने कहा-~'पुत्री ! सुनो, जिसका यह सम्पूर्ण फल है ।' मैंने कहा- 'भगवन् ! सावधान हूँ।' भगवान् ने कहा-'पुत्री ! सुनो ___ इसी भारतवर्ष के उत्तरापथ देश में ब्रह्मपुर नाम का नगर है। वहाँ पर ब्रह्मसेन नाम का राजा था । उस राजा के द्वारा सम्मानित विदुर नाम का ब्राह्मग था । उसकी पुरन्दरयशा पत्नी थी। उन दोनों के इससे पहले के नवें भव में तुम चन्द्रपमा नाम की माता-पिता की प्यारी पुत्री थी। जिन-वचनों के प्रति श्रद्धा रखने के कारण १.धम्ममित्ताणं वयणाई-पा. ज्ञा,। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001882
Book TitleSamraicch Kaha Part 2
Original Sutra AuthorHaribhadrasuri
AuthorRameshchandra Jain
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1996
Total Pages450
LanguagePrakrit, Sanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Story, & literature
File Size11 MB
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