________________
अठमो भवो ]
1
देसंति ते धम्मं निवारे॑ति अहियाओ । अणाइभवभावणादोसेण बालयाए य न परिणमइ ते समं । समुत्पन्ना य ते पीई जसोदाससेट्टिभारियाए बंधुसुंदरीए सह । सा य अइस कि लिट्ठचित्ता संसाराहिदिणी गिद्धा कामभोएसु निरवेक्खा परलोयमग्गे । तओ वारिया तुमं जणणिजणएहि । वच्छे, अलमिमी सह संगेण, पावमित्तथाणीया खु एसा, पडिसिद्धो य भयवया पावमित्तसंगो । न पडिवन्नं च तं तए गुरुवयणं । अन्नया गया तुमं बंधुसुंदरिसमीवं । दिट्ठा विमणदुम्मणा बंधुसुंदरी । भणिया य एसा - हला, कीस तुमं विमणदुम्मण त्ति । तीए भणियं - पियसहि, विरत्तो मे भत्ता गाढरतो मवईए, अजापुत्तभंडा य अहयं । ता न याणामो कहं भविस्सइ त्ति दढं विसण्ण म्हि । तए भणियं - अलं विसाएण, उवाए जत्तं कुणसु त्ति । तीए भणियं न याणामि एत्थुवायं, सुयं च मए, अत्थि इह उप्पला नाम परिव्वाइया, सा एवंविहेसु कुसला, न य णे तं पेक्खिउं अवसरो त्ति । तए भणियं कहि सा परिवसइ, साहेहि मज्झ; अहं तमाणेमि त्ति । साहियं बंधसुंदरीए, जहा किल पुव्वबाहिरियाए । तओ गया तुमं, दिट्ठा परिव्वाइया । बंधुसुंदरी तुम दट्टुमिच्छत्ति भणिऊण
--
1
दिशतस्ते धर्मम्, निवारयतोऽहितात् । अनादिभवभावनादोषेण वालतया च न परिणमति सम्यक् । समुत्पन्ना च ते प्रीतिर्यशोदासश्रेष्ठिभार्यया बन्धुसुन्दर्या सह । सा चातिसंक्लिष्टचित्ता संसाराभिनन्दिनी गृद्धा कामभोगेषु निरपेक्षा परलोकमार्गे । ततो वारिता त्वं जननीजनकाभ्याम् । वत्से ! अलमनया सह सङगेन, पापमित्रस्थानीया खल्वेषा, प्रतिषिद्धश्च भगवता पापमित्रसङ्गः । न च प्रतिपन्नं तत् त्वया गुरुवचनम् । अन्यदा गता त्व बन्धु सुन्दरीसमीपम् । दृष्टा विमनोदुर्मना बन्धुसुन्दरी । भणिता चैषा-हला ! कस्मात् त्वं विमनोदुर्मना इति । तया भणितम् - प्रियसखि ! विरक्तो मे भर्ता गाढरक्तो मदिरावत्याम् । अजातपुत्रभाण्डा चाहम् । ततो न जानामि, कथं भविष्यति इति दृढं विषण्णाऽस्मि । त्वया भणितम् अलं विषादेन, उपाये यत्नं कुर्विति । तया भणितम् - : - न जानाम्यत्रोपायम्, श्रुतं च मया, अस्तोह उत्पला नाम परिव्राजिका, सा चंवंविधेषु कुशला, न चास्माकं तां प्रेक्षितुमवसर इति । त्वया भणितम् - कुत्र सा परिवसति कथय मम, अहं तामानयामीति । कथितं बन्धुसुन्दर्या, यथा किल पूर्ववाहिरिकायाम् । ततो गता त्वम् दृष्टा परि
1
७६१
उन दोनों ने तुझे धर्मोपदेश दिया, अहित से रोका। अनादि संसार के प्रति श्रद्धा के दोष से अज्ञान के कारण तेरी ठीक परिणति नहीं हुई । तेरी 'यशोदास' सेठ की पत्नी बन्धुसुन्दरी के साथ प्रीति उत्पन्न हो गयी । वह यशोदास सेठ की पत्नी संसार का अभिनन्दन करनेवाली, कामभोगों में आसक्त और परलोक के मार्ग से निरपेक्ष थी । अतः तुम्हें माता-पिता ने रोका - 'पुत्री ! इसकी संगति मत करो, यह पापी मित्र के स्थान पर है और भगवान् ने पापी मित्रों का साथ करने का निषेध किया है।' माता-पिता के उन वचनों को तूने नहीं माना। एक बार तुम बन्धुसुन्दरी के पास गयीं । बन्धुसुन्दरी को दुःखीमन देखा । इसने कहा- सखी! तुम क्यों दुःखी मन हो ? उसने कहा - 'प्रियसखी ! मेरे पति ( मुझसे ) विरक्त होकर मदिरावती के प्रति अत्यधिक आसक्त हैं। मेरे न तो पुत्र
'और न धन; अतः नहीं जानती हूँ, कैसे ( क्या होगा ? अतः अत्यधिक दुःखी हूँ । तुमने कहा- विषाद मत करो, उपाय की कोशिश करो।' उसने कहा- मैं इस विषय में उपाय नहीं जानती हूँ, किन्तु मैंने सुना है कि यहाँ उत्पला नाम की परिव्राजिका हैं। वह ऐसे कार्यों में कुशल हैं और मेरे पास उनके दर्शन का मौका नहीं है : ( तब ) तुमने कहा- वह कहाँ रहती हैं ? मुझसे कहो, मैं उन्हें लाती हूँ । बन्धुसुन्दरी से कहा कि वह परिव्राजिका पूर्व की ओर बाहर रहती हैं । अनन्तर तुम गयीं, परिव्राजिका के दर्शन किये । बन्धुसुन्दरी तुम्हें देखने की इच्छा
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org