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[ समराइच्चकहा
आणिया तुमए, आणिऊण गया तुमं सगिहं । पूइया सा बंधुसुंदरीए, साहिओ से निवृत्तंतो । भणियं परिव्वाइयाए - अविहवे, धीरा होहि । थेवमेयं कज्जं । करेमि अहमेत्थ जोयं, जेण सो तीसे ओसमावज्जइति । बंधुसुंदरीए भणियं - भयवइ, अणुग्गिहीय म्हि । गया परिव्वाइया, कओ य जाए जसोदाससेट्टिणी महराबई पइ विदेसणजोओ । पउत्तो विहिणा । अचितसामत्थयाए ओसहीणं विचित्तयाए कम्मपरिणामस्स विरत्तो तीए सेट्ठी । परिचत्ता महरावई, गहिया सोएण। एयनिमित्तं चबद्धं तर किलिमं । परिवालिऊण अहाउयं मया समाणी तक्कम्मदोसेणेव समुत्पन्ना करेणुयत्ताए अविया जहाहिवस्प; गहिया वारिमज्झे । तओ तत्थ महंतं किलेस मणुहविय मया समाणी तक्म्मदोसेणेव समुत्पन्ना वाणरित्ताए ति । तत्थ विय अच्चतमपिया जूहाहिवस्स । विच्छूढा जूहाओ गहिया जरठकुरेण, निबद्धा लोहसंकलाए । महादुक्खपीडिया अहाउयं पालिऊण मया समाणी तक्मदोसेणेव समुपपन्ना कुक्कुरिताए । तत्थ वि यरिउकाले वि अणहिमया सव्वकुक्कुराणं कीडाarraforgदेहा महंतं किलेसमजुहविय मया समाणी तक्कम्मदोसेणेव समुत्पन्ना मज्जारि
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व्रजिका | 'बन्धुसुन्दरी त्वां द्रष्टुमिच्छति इति भणित्वाऽनीता त्वया, आनीय गता त्वं स्वगृहम् । पूजिता सा बन्धुसुन्दर्या । कथितस्तस्य निजवृत्तान्तः । भणितं च परिव्राजिव या अविधवे ! धीरा भव स्तोकमात्रं कार्यम् । करोम्यहमत्र योगं येन स तस्याः प्रद्वेषमापद्यते इति । बन्धुसुन्दर्या भणितम् - भगवति ! अनुगृहीताऽस्मि । गता परिव्राजिका, कृतश्च तया यशोदासश्रेष्ठिनः मदिरात प्रति विद्वेषणयोगः, प्रयुक्तो विधिना । अचिन्त्यसामर्थ्य तयौषधीनां विचित्रतया कर्मपरिणामस्य विरक्तस्तस्यां श्रेष्ठी । परित्यक्ता मदिरावती, गृहीता शोकेन । एतन्निमित्तं च बद्धं त्वया क्लिष्टकर्म । परिपालय यथायुष्कं मृता सभी तत्कर्मदोषेणैव समुत्पन्ना करेणतया अप्रिया युथाधिपस्य, गृहोता वारिमध्ये । ततस्तत्र महान्तं क्लेशमनुभूय मृता सती तत्कर्मदोषेणैव समुत्पन्ना वानरीतयेति । तत्रापि चात्यन्नमप्रिया यूथाधिपस्य । विक्षिप्ता यूथाद् गृहीता जरलक्कुरेण, निबद्धा लोहशृंखया । महादुःखपीडिता यथाऽऽयुः पालयित्वा मृता सती तत्कर्मदोषेणैव समुत्पन्ना कुर्कुरीतया । तत्रापि च ऋतुकालेऽनि अनमिता सर्वककराणां कीटनिकरक्षतविनष्टदेहा महान्तं क्लेशमनुभूयमृता सती तत्कर्मदोषेणैव समुत्पन्ना मार्जारीतयेति । तवापि चामनोरमा सर्वमाजराणां करती है - ऐसा कहकर तुम ( उन्हें ) ले आयीं और लाकर अपने घर गयीं। उनकी बन्धुसुन्दरी ने पूजा की । उनसे अपना वृत्तान्त कहा। परिव्राजिका ने कहा- सौभाग्यवती ! धीर होओ, थोड़ा-सा कार्य है । मैं यहाँ ऐसा योग (एक विशेष प्रकार का चूर्ण) बनाती हूँ, जिससे वह उसके प्रति द्वेष करने लगेगा । बन्धुमुन्दरी ने कहाभगवती ! मैं अनुगृहीत हूँ । परिव्राजिका गयी, उसने यशोदास सेठ का मदिरावती के प्रति द्वेष का योग बनाया (और) विधिपूर्वक प्रयोग किया । औषधियों की अचिन्त्य सामर्थ्य (और) कर्मों के परिणाम की विचित्रता से सेठ उससे विरक्त हो गया। मदिरावती छोड़ दी गयी और उसे शोक ने जकड़ लिया। - बाँधा | आयु पालन कर मृत हो उसी कर्म के दोष से ही हथिनी के रूप में उत्पन्न हुई और यूथाधिप ( हाथियों के झुण्ड के स्वामी) की तुम अप्रिय बनी। हाथी को पकड़ने के लिए बनाये गये गड्ढे में गिर गयीं । वहाँ पर अत्यधिक क्लेश का अनुभव कर मरकर उसी कर्म के दोष से वानरी हुई। वहाँ पर भी झुण्ड के स्वामी की अत्यन्त अप्रिय थी । झुण्ड से अलग होने के कारण बूढ़े ठाकुर ने पकड़ लिया और लोहे की सांकल से बाँधा । महादुःख से पीडित होकर आयु पालन करमरकर उसी दोष से ही कुत्ती के रूप में उत्पन्न हुई । उस जन्म में भी ऋतुकाल में समस्त कुत्तों के द्वारा नचाही जाकर कीड़ों के समूह द्वारा क्षत-विक्षत देहवाली हो महान क्लेश का अनुभव कर मरकर उसी
इस कारण तुमने क्लिष्ट कर्म
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