SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 313
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ अट्ठमो भवो ] तति । तत् वि अमणोरमा सव्वमज्जाराणं गेहाणलदड्ढदेहा अहा उपक्स ए मरिऊण तक्कम्मarer समपन्ना चक्कवाइयत्ताए ति । तत्थ विसया पिययमपरिवज्जिया किलेससंपाइयवित्तो मतं दुःखमणुहवि मया समाणी तक्कम्मदोसेणेव समुत्पन्ना चंडालइत्थिगत्ताए ति । तत्थ विय दर्द अमणोरमा पिययमस्स मयणदुक्खपीडिया अहाउयक्खएण मरिऊण तक्कम्मदोसेणेव समुत्पन्ना सबरइथिगत्ताए । तत्थ वि य अमणोरमा सम्बसबराण विच्छूढा णेहि पल्लीओ परिभमंती य विसमसज्झकं तारे किलेस संपाइयसरीरठिई परिक्खीणकाया अद्धाणपडिवन्नपहपरिभट्ठेहि दिट्ठा तुमं साहू, ते वियतुमाए ति । ते य दट्ठूण समुप्पन्नो ते पमोओ। पुच्छिया य ह - धम्मसीले को उण इमो परसो केदूरे वा इओ वत्तणि त्ति । तए सबहुमाणमाइक्खियं-सज्भकंतारमेयं, इओ नाइदूरे वत्तणो । साहूह भणित्रं- धम्मसोले, कयरीए दिसोए वत्तणो । तए भणियं - अवरमग्गेण इओ वोलिऊण इमं तरुलयागहणं । अहवा एह, अहं चैव दंसेमित्ति । दंसिया बत्तणी । चितियं च सुद्धचित्ताए - अहो इमे अमच्छरिया पियभासिणो पसंतरुवा अभिगमणीया; धन्नाणमेवंविहेहि सह गेहानलदग्धदहा यथायुष्कक्षये मृत्वा तत्कर्मदोषेणैव समुन्ना चक्रवाकीतयेति । तत्रापि सदा प्रियतम परिवजिता क्लेश सम्पादितवृत्तिर्महान्तं दुःखमनुभूय मृता सती सत्कर्मदोषणैव समुत्पन्ना चाण्डालस्त्रीकतयेति । तत्रापि च दृढममनोरमा प्रियतमस्य मदनदुःखपीडिता यथाऽऽयुःक्षयेण मृत्वा तत्कर्मदोषेणैव समुत्पन्ना शबरस्त्रीकतयेति । तत्रापि चामनोरमा सर्वशबराणां विक्षिप्ता तैस्पल्लीतः परिभ्रमन्ती च विषमसह्यकान्तारे क्लेशसम्पादितशरीरस्थितिः परिक्षीणकायाध्वप्रतिपन्तपथपरित्वं साधुभिः, तेऽपि च त्वयेति । तांश्च दृष्ट्वा समुत्पन्नस्ते प्रमोदः । पृष्टा च तैः - धर्मशीले ! कः पुनरयं प्रदेशः कियद्दूरे वा इतो वर्तनोति । त्वया सबहुमानमाख्यातम् - सह्यकान्तारमेतद् इतो नातिदूरे वर्तनी । साधुभिः भणितम् - धर्मशीले ! कतरस्यां दिशि वर्तनी । त्वया भणितम् - अपरमार्गेण इतो व्यतिक्रम्यदं तरुलतागनम् । अथवा एध्व, अहमेव दर्शयामीति । दर्शिता वर्तन । चिन्तितं च शुद्धचित्तथा । अहो इमेऽमात्यः प्रियभाषिणः प्रशान्तरूपा अभिगमनीयाः, ७६३ कर्म के दोष से बिल्ली हुई । उस जन्म में भी सब बिलावों के द्वारा न चाही जाकर घर में आग लग जाने से शरीर जल जाने पर आयु क्षय होने पर मरकर उसी कर्म के दोष से ही चकवी के रूप में उत्पन्न हुई । उस जन्म में भी सदा प्रियतम के द्वारा छोड़ी जाकर क्लेश से जीविकोपार्जन कर बड़े दुःख का अनुभव कर मरकर उसी कर्म के दोष से ही चाण्डाल की स्त्री हुई । उस जन्म में भी प्रियतम के द्वारा अत्यधिक अमनोरम होकर कामदुःख से पीडित हो आयुक्षय हो जाने पर मरकर उसी कर्म के दोष से ही शबर की स्त्री के रूप में उत्पन्न हुई। उस जन्म में भी समस्त शबरों के लिए अमनोरम होती हुई शबरस्वामी के द्वारा त्यागी जाकर हिमालय के भयंकर जंगल में भ्रमण करती हुई क्लेश से शरीर की स्थिति बनाये रखी । तूं क्षीणकाय हो गयी तथा रास्ते में रास्ता भूले हुए साधुओं ने तुझं देखा, तूने भी उन्हें देखा । उन्हें देखकर तुझे हषं हुआ। उन साधुओं ने पूछाधर्मशीले | यह कौन प्रदेश है ? अथवा यहाँ से रास्ता कितनी दूर है ? तूने आदरपूर्वक कहा - यह हिमालय कान है, यहाँ से पास में ही रास्ता है । साधुओं ने कहा- रास्ता किस दिशा में है ? तूने कहा - ' इन भयंकर वृक्षों और लताओं को लांघकर पश्चिम में है अथवा आओ' मैं ही दिखा दूं, ऐसा कहकर रास्ता दिखा दिया और शुद्ध चित्त से सोचा- ओह ! ये द्वेषरहित, प्रियभाषी, शान्तरूप और समीप में रहने योग्य हैं । वे पुरुष Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001882
Book TitleSamraicch Kaha Part 2
Original Sutra AuthorHaribhadrasuri
AuthorRameshchandra Jain
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1996
Total Pages450
LanguagePrakrit, Sanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Story, & literature
File Size11 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy