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[समराइच्चकहा
भणियं-न किंचि। मए भणियं-हा कहं न किंचि; कहिं अज्जउत्तो, कहमीइसी अवीसत्थय त्ति। ता साहेहि कारणं, पज्जाउलं मे हिययं ति। तेण भणियं-अलं पज्जाउलयाए। निब्बंधपुच्छिएण साहिओ मणोहराजक्खिणिवुत्तंतो। मए भणियं-अज्जउत्त, कह णु एयं, अहिणिविट्ठा खु एसा। राइणा भणियं-देवि, थेमियं कारणं । कि तोए अहिणिवेसेण। जइ पावेमि तं हत्थगहणे संपयं, ता तह कयत्थेमि, जहा छड्डेइ अहिणिवेसं ति। अन्नया य 'वासभवणत्थो राय' त्ति सोऊण पयट्टा अहं वासभवणं । गया एगं कच्छंतरं, जाव दिट्ठो मए राया मम समाणरूवाए इत्थियाए सह सयणीयमुवगओ त्ति। तओ 'हा किमेयं' ति संखद्धा अहं, नियत्तमाणी य दिट्ठा राईणा। भणियं च णेण-आ पावे, कहिं नियत्तसि । मुणिओ ते मायापओओ। देवि, पेच्छ पावाए धद्वत्तणं ति। भणिऊण धाविओ मम पिट्टओ। वेवमाणसरीरा गहियाहमणेण केसेसु । संभमाउलं जंपियं मए --अज्जउत्त, किमयं ति । तेणावहीरिऊण मज्झ वयणं समाहूया सा इस्थिया। देवि, पेच्छ पावाए मायाचरियं । जारिसं तए मंतियं ति, तारिसं चेव इमीए संपाडियं । कओ किल तह संतिओ वेसो। तीए भणियं-अज्जउत्त, अलमिमीए दसणेण, निव्वासे हि एयं महापावं ति। तओ राइणा सद्दाक्यिा अट्ठपाहरिया । समागया तेन भणितम् - न किञ्चिद् । मया भणितम् - हा कथं न किञ्चित्, कुत्रार्यपुत्रः, कथमीदृश्यविश्वस्ततेति । ततः कथय कारणम्, पर्याकुलं मे हृदयमिति । तेन भणितम् - अलं पर्याकुलतया। निर्बन्धपृष्टेन कथितो मनोहरा यक्षिणीवृतान्तः। मया भणितम् - आर्यपुत्र ! कथं न्वेतत्, अभिनिविष्टा खल्वेषा । राज्ञा भणितम् -देवि ! स्तोकमिदं कारणम् । किं तस्या अभिनिवेशन । यदि प्राप्नोमि तां हस्तग्रहणे साम्प्रतं ततस्तथा कदर्थयामि यथा मुञ्चत्यभिनिवेशमिति ॥ अन्यदा च 'वासभवनस्थो राजा' इति श्रुत्वा प्रवृत्ताऽहं वासभवनम् । गतैकं कक्षान्तरम्, यावत् दृष्टो मया राजा मम समानरूपया स्त्रिया सह शयनीयमुपगत इति । ततो 'हा किमेतद्' इति संक्षुब्धाऽहम् । निवर्तमाना च दृष्टा राज्ञा । भणितं च तेन - प्राः पापे! कुत्र निवर्तसे, ज्ञातस्तव मायाप्रयोगः। देवि ! पश्य पापाया धृष्टत्वमिति । भणित्वा धावितो मम पृष्ठतः। वेपमानशरीरा गृहीताऽहमनेन केशेषु । सम्भ्रमाकलं जल्पितं मया--आर्यपुत्र ! किमेतदिति । तेनावधीर्य मम वचनं समाहूता सा स्त्री। देवि ! पश्य पापाया मायाचरितम् । यादृशं त्वया मन्त्रितमिति, तादशमेवानया सम्पादितम् । कुतः किल तव सत्को वेशः । तया भणितम्-आर्यपुत्र ! अलमस्या दर्शनेन, निसियैतां महापापामिति । ततो
कैसे कुछ नहीं, आर्यपुत्र कहाँ गये थे? ऐसा अविश्वास कैसे ? अतः कारण कहो, मेरा हृदय व्याकुल है।' उन्होंने कहा-'व्याकुल मत होओ।' आग्रहपूर्वक पूछने पर मनोहर यक्षिणी का वृत्तान्त कहा । मैंने कहा---'आर्यपुत्र बह कैसे, यह अनुरक्त थी ?' राजा ने कहा - 'देवि ! यह थोड़ा-सा कारण है, उसकी अनुरक्ति से क्या ? यदि उसे हाथ से इस समय पकड़ लूं तो वैसा तिरस्कृत करूँ कि वह अनुरक्ति छोड़ दे।' एक बार राजा शयनगृह में हैं-ऐसा सुनकर मैं शयनगृह में गयी । एक कमरे के बीच गयी कि मैंने राजा को मेरे ही समान रूपवाली स्त्री के साथ शय्या पर देखा। अनन्तर हाय यह क्या-इस प्रकार मैं क्षुब्ध हुई। लौटते हुए राजा ने देखा और उसने कहा-'अरी पापिन ! कहाँ लौटी जा रही है, तुम्हारे माया प्रयोग को जान लिया है। देवि ! पापिन की धृष्टता को देख ऐसा कहकर मेरे पीछे दौड़ा । काँपते हुए शरीरवाली मैं इसके द्वारा बालों से पकड़ ली गयी। घबड़ाहट से आकुलित होकर मैंने कहा-'आर्यपुत्र ! यह क्या ?' राजा ने मेरे वचनों का तिरस्कार कर उस स्त्री को बुलाया-'महारानी ! देखो उस पापिनी का मायाचरित । जैसा तुमने कहा था वैसा ही इसने किया। तुम्हारे समान उसका वेश कहाँ ?' उसने कहा-'आर्यपुत्र ! इसका दर्शन व्यर्थ है, इस महापापिनी को निकाल दो।'
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