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अट्ठमो भवो ]
७५७ विरुद्धमेव । राइणा भणियं -कि मए अलियं जंपि ति । तीए भणियं-जहा 'कोऽणरत्तं विणा दोसेण परिच्चयइ' । राइणा भणियं-किमेत्थ अलियं ति। तोए भणियं-जं परिच्चयसि मं अणुरत्तं ति । राइणा भणियं -नाणुरता तमं, जेण म अहिए निउंसि । अओ चेव न दोसवज्जिया, जेण न परलोयं अवेस्खसि। तीए भणियं-किमिमिणा जंपिएण। जइन माणेसि मं, तओ अहं नियमेण भवंतं वावाएमि। राइणा भणियं --भद्दे को तए वावाईयइ । जो रंडाए पुरिसो वाबाइज्जइ, तस्स जलंजलिदाणं पि न जज्जइ त्ति । तओ पउट्ठा विय पहाविया रायसम्मुहं । हुंकारिया य ण । जाया अइंसणा । तओ किमिमीए ति पयट्टो राया सनयराभिमुहं । समागओ थेवं भूमिभाग, जाव अयण्डम्मि चेव निवडिओ कंचणपायवो । न लग्गो राइणो। जोइयं च णोवरिहुत्तं । दिट्ठा य सा गयणमज्झे । भणियं च णाएअरे दुरायार, केत्तिए वारे एवं छुट्टिहिसि। राइणा भणियं-आ पावे, अगोयरत्था तुम अन्नहा अवस्समहं तमं निग्गहेमि । असणीहया एसा। देव्वजोएण तरयमग्गाणलग्गेण दिट्ठो नियसेन्नेण समागओ राया सनयरं । कयं वद्धावणयं । 'सम्वत्थावीसत्थो चिट्ठई' ति पुच्छियं मए 'अज्जउत्त; किं निमित्तं' । तेण
मिति । तया भणितम् -यथा 'कोऽनुरक्तं विना दोषेण परित्यजति'। राज्ञा भणितम् -किमत्रालीकमिति । तया भणितम्-यत् परित्यजसि मामनुरक्तामिति । राज्ञा भणितम्-नानुरक्ता त्वम्, येन मामहिते नियोजयसि । अत एव न दोषनिता, येन न परलोकमपेक्षसे । तया भणितम् - किमनेन जल्पितेन । यदि न मानयसि मां ततोऽहं नियमेन भवन्तं व्यापादयामि । राज्ञा भणितम्भद्रे ! कस्त्वया व्यापाद्यते । यो रण्डया पुरुषो व्यापाद्यते तस्य जलाञ्जलिदानमपि न युज्यते इति । ततः प्रद्विष्टेव प्रधाविता राजसम्मुखम् । हुंकारिता च तेन । जाताऽदर्शना । ततः किमनयेति प्रवृत्तो राजा स्वनगराभिमुखम् । समागतः स्तोक भूमिभागम्, यावदकाण्डे एव निपतितः काञ्चन पादपः। न लग्नो राज्ञः । दृष्टं च तेनोपरिसम्मुखम् । दृष्टा च सा गगना ध्ये । भणितं चानया-अरे दुराचार ! कियतो वारान् एवं छुटिष्यसि । राज्ञा भणितम् -आः पापे ! अगोचरस्था त्वम्, अन्यथाऽवश्यमहं त्वां निगृह्णामि । अदर्शनीभूतैषा। दैवयोगेन तुरगमार्गानुलग्नेन दृष्टो निजसैन्येन समागतो राजा स्वनगरम् । कृतं वर्धापनकम् । 'सर्वत्राविश्वस्तस्तिष्ठति' इति पृष्टं मया 'आर्यपुत्र ! किं निमित्तम् ।'
'कौन अनुरक्त जन को बिना दोष के त्यागता है ?' राजा ने कहा-'यहाँ झूठ क्या है ?' उसने कहा-'जो कि मुझ अनुरक्ता को त्याग रहे हो।' राजा ने कहा-'तुम अनुरक्ता नहीं हो, क्योंकि मुझे अहित में नियुक्त कर रही हो । अतएव दोष से रहित नहीं हो। इसी से तुम परलोक की अपेक्षा नहीं करती हो।' उसने कहा-'इस बात से क्या, यदि नहीं मानते हो तो मैं निश्चित रूप से तुम्हें मार डालूंगी।' राजा ने कहा- 'भद्रे ! कोन तुम्हारे द्वारा मारा जाता है ? जो पुरुष रण्डा के द्वारा मारा जाता है उसके लिए जलांजलि देना भी ठीक नहीं है।' इसके बाद वह यक्षिणी मानो द्वेषी हो राजा के सामने दौड़ी। राजा ने हुंकार की। वह अदृश्य हो गयी। अनन्तर इससे क्या, ऐसा सोचकर राजा अपने नगर की ओर चल पड़ा। थोड़ी दूर आया कि असमय में ही स्वर्ण वृक्ष गिर पड़ा । राजा को नहीं लगा। उसने ऊपर की ओर देखा, वह यक्षिणी आकाश में दिखाई दी। यक्षिणी ने कहा-'अरे दुराचारी ! कितने बार इस प्रकार छूटोगे ?' राजा ने कहा – 'अरी पापिन ! तू अदृश्य हो जा नहीं तो मैं तुझे अवश्य ही पकड़ लूंगा।' यह अदृश्य हो गयी। भाग्य से घोड़े के पीछे लगी हुई अपनी ही सेना ने राजा को अपने नगर की ओर आता हुआ देखा । उत्सव किया । 'सभी जगह बिना विश्वास के ही चले जाते हैं। अतः मैंने पूछा-'आर्यपुत्र ! किस कारण गये थे।' राजा ने कहा-'कुछ नहीं।' मैंने कहा- 'हाय !
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