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________________ [ समराइच्चकहा भणियं - कोस तुमं एत्थ एगागिणी । तीए भणियं - अहं ख नंदणाओ मलयं गया आसि सह पिययमेण । तओ आगच्छमाणीए इह पए से निमित्तमंतरेण कुत्रिओ मे पिययमो, गओ य मं उज्झिउं । अओ एयाइणिति । राइणा भणियं -न सोहणमणुचिट्ठियं दुर्वेहि पितुर्भोह। तीए भणियं - कहं विय । राणा भणियं -जमुज्झिया पिययमेणं, तुमं पि जं तेण सह न गय त्ति । तीए भणियं - अलं तेणमविसेसन्नुणा । राइणा भणियं भद्दे, न एस धम्मो सईण । तीए भणियं - कीइस तस्स सइत्तणं, जो अणुरत्तं जणं परिच्चय । राइणा भणियं-भद्दे, कोऽणुरत्तं विणा दोसेण परिच्चयइ । तीए भणियं जो अणुओ । एवं च भणिऊण सविलासमवलोइउं पवत्ता । अवहीरिया राइणा । मोहदोसेण विगयलज्जं भणियं च जाए- महाराय इयाणि चेव जंपियं तए, जहा 'कोऽणुरतं विणा दोसेण परिच्चयई' | अणुरत्ता य अहं भवओ । ता कीस तुमं अवहीरेसि । राइणा भणियं - भद्दे, मा एवं भण; परिस्थिया तुमं । तीए भणियं - महाराय, पुरिसस्स सव्वा परा चेव इत्थिया होइ। राइणा भणिय fafaण जाइव एण; परिच्चय इमं परलोयविरुद्धमालावं । तीए भणियं - अलियवयणं पिय परलोय ७५६ - , चैतत् । राज्ञा भणितम् -- कस्मात्त्वमत्र काकिनी । तया भणितम् - अहं खलु नन्दनाद् मलयं तत् सह प्रियतमेन । तत आगच्छन्त्या इह प्रदेशे निमित्तमन्तरेण कुपितो मे प्रियतमः, गतश्च मामुत्वा अत एकाकिनीति । राज्ञा भणितम् न शोभनमनुष्ठितं द्वाभ्यामपि युवाभ्याम् । तया भणितम् - कथमिव । राज्ञा भणितम् - यदुज्झिता प्रियतमेन त्वमपि यत्तेन सह न गतेति । तया भणितम् - अलं तेनाविशेषज्ञ ेन । राज्ञा भणितम् - भद्रे ! नैष धर्मः सतोनाम् । तया भणितम् - कीदृशं तस्य सतीत्वं (सत्त्वम् ), योऽनुरक्तं जनं परित्यजति । राज्ञा भणितम् - भद्रे ! कोऽनुरक्तं विना दोषेण परित्यजति । तया भणितम् - योऽज्ञायकः । एवं च भणित्वा सविलासमवलोकितुं प्रवत्ता । अवधीरिता राज्ञा । मोहदोषेण विगतलज्जं भणितं च तया - महाराज ! इदानीमेव जल्पितं त्वया, यथा 'कोऽनुरक्तं विना दोषेण परित्यजति' । अनुरक्ता चाहं भवतः । ततः कस्मात्त्वमवधीरयसि । राज्ञा भणितम् — भद्रे ! मैवं भण, परस्त्री त्वम् । तया भणितम् - महाराज ! पुरुषस्य सर्वा परव स्त्री भवति । राज्ञा भणितम् - किमनेन जातिवादेन, परित्यजेमं परलोकविरुद्धमालापम् । तया भणितम् - अजीकवचनमपि च परलोकविरुद्धमेव । राज्ञा भणितम् - किं मयाऽलीकं जल्पित कहा- 'मैं नन्दन वन से प्रियतम के साथ मलयवन जा रही थी। इस स्थान पर आकर बिना कारण ही मेरे प्रियतम कुपित हो गये और मुझे छोड़कर चले गये अतः एकाकिनी हूँ ।' राजा कहा - 'आप दोनों ने ठीक नहीं किया ।' उस यक्षिणी ने कहा- 'कैसे ?' राजा ने कहा- 'जो प्रियतम से छोड़ी जाकर भी तुम उसके साथ नहीं गयीं । उसने कहा - 'उस अविशेषज्ञ के साथ जाना व्यर्थ है ।' राजा ने कहा- 'भद्रे ! यह सतियों का धर्म नहीं है ।' उसने कहा- 'उसका सतीत्व कैसा जो अनुरक्त जन को त्याग देता है ?' राजा ने कहा- 'अनुरक्त को बिना दोष के कौन त्यागता है ?' उस यक्षिणी ने कहा- 'जो अज्ञानी होता है' - ऐसा कहकर सविलास देखने लगी। राजा ने उसकी अवज्ञा कर दी। मोह के दोष से लज्जा छोड़कर उसने कहा- 'महाराज ! अभी अभी आपने कहा था कि 'कौन अनुरक्त व्यक्ति को बिना दोष के त्यागता है' और मैं आप पर अनुरक्त हूँ तथा आप क्यों तिरस्कार कर रहे हैं ?' राजा ने कहा- 'भद्र ! ऐसा मत कहो, तुम परस्त्री हो ।' उसने कहा 'महाराज ! पुरुष के लिए तो सभी परस्त्री हैं।' राजा ने कहा- 'इस प्रकार के जातिवाद से क्या, परलोक विरोधी इस बात को छोड़ो ।' उसने कहा – 'झूठ बोलना भी परलोक के विरुद्ध है ।' राजा ने कहा - मैंने क्या झूठ बोला ?' उसने कहा 你 Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001882
Book TitleSamraicch Kaha Part 2
Original Sutra AuthorHaribhadrasuri
AuthorRameshchandra Jain
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1996
Total Pages450
LanguagePrakrit, Sanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Story, & literature
File Size11 MB
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