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________________ अट्ठमो भवो] ७५५ य तुमं पमाणं ति । रयणवईए भणियं-एवमेयं; किं तु मरिसेउ भयवई, जं मए आउलाए वियप्पियं । गणिणीए भणियं-- न एत्थ दोसो, नेहाउला हि पाणिणो एवंविहा चेव हवंति । किं तु तए वि मरिसियवं, जंमए तुह सिग्धपडिवत्तिनिमित्तमेवं जंपियं ति । रयणवईए भणियं-भयवइ, अणुग्गहे का मरिसावणा । अवणीओ मम महासोओ भयवईए इमिणा जंपिएण। किं तु पुच्छामि भगवई, कस्स उण कम्मस्स ईइसो महारोद्दो विवाओ त्ति । गणिणीए भणियं-वच्छे, थेवस्स अन्नाणचेट्टियस्स । कोइसी वा इमस्स रोया। सण, थेवेण कम्मुणा जंमए पावियं ति। रयणवईए भणियं-भयवइ, महंतो मे अणुग्गहो; दढमवहिय म्हि । गणिणीए भणियं-अत्थि कोसलाहिवो नरसुंदरो नाम राया। तस्साहमिमं जम्मपरियायं पड्डच्च धम्मपत्ती अहेसि । सो य एगया गओ आसवाहणियाए। अवहिओ दप्पियतुरएण विच्छूढो महाडवीए । दिट्ठा य ण मज्झण्हदेसयाले तीए महाडवीए एगम्मि वणनि उंजे अउव्वदसणा इत्थिया। भणिओ य तीए-महाराय, सागयं, उवविससु त्ति । राइणा भणियं-कासि तुमं को वा एस पएसो ति। तोए भणियं-मगोहरा नाम जक्खिणी अहं, विझरण्णं च एयं । राइणा एवमेतद्, किन्तु मर्षया भगवती, यन्नयाऽऽकुलया विकल्पितम् । गणिन्या भणितम् - नात्र दोषः, स्नेहाकुला हि प्राणिन एवंविधा एव भवन्ति । किंतु त्वयापि मषंयितव्यम्, यन्मया तव शोघ्रप्रतिपत्तिनिमित्त मेवं जल्पितमिति। रत्नवत्या भणितम् - भगवति ! अनुग्रहे का मर्षणा। अपनीतो मम महाशोको भगवत्याऽनेन जल्पितेन। किन्तु पच्छामि भगवतीम्, कस्य पुनः कर्मण ईदशो महारौद्रो विपाक इति । गणिन्या भणितम् - वत्से ! स्तोकस्याज्ञानचेष्टितस्य । कीदृशी वाऽऽस्य रोद्रता। शृणु, स्तोकेन कर्मणा यन्मया प्राप्तमिति। रत्नवत्या भणितम् - भगवति ! महान्मेऽनुग्रहः, दृढमवहिताऽस्मि । गणिन्या भणितम्-अस्ति कोशलाधिपो नरसुन्दरो नाम राजा। तस्याहमिमं जन्नपर्यायं प्रतीत्य धर्मपत्न्यासोद् । स चेकदा गतोऽश्ववाहनिकया। अपहृतो दर्पिततुरगेन विक्षिप्तो महाटव्याम् । दृष्टा च तेन मध्याह्नदेशकाले तस्या महाटव्या एकस्मिन् वननिकुञ्ज पूर्वदर्शना स्त्रो। भणितश्च तया - महाराज ! स्वागतम्, उपविशेति । राज्ञा भणितम्काऽसि त्वम्, को वा एष प्रदेश इति । तया भणितम् –मनोहरा नाम यक्षिण्यहम्, विन्ध्यारण्य गुह्यस्थान में मष होता है-ऐसा स्वरमण्डल में पढ़ा था। यहाँ पर तुम प्रमाण हो।' रत्नवती ने कहा-'ठीक है, किन्तु भगवती क्षमा करें जो कि मैंने आकूल होने के कारण संशय किया।' गणिनी ने कहा-'इसमें दोष नहीं है, स्नेहाकुल प्राणी निश्चित रूप से ऐसे ही होते हैं किन्तु तुम भी क्षमा करना जो कि शीघ्र जानकारी के लिए ऐसा कहा ।' रत्नवती ने कहा - 'भगवती ! अनुग्रह में क्षमा की क्या बात है ! भगवती ने इस कथन से मेरा महाशोक दूर कर दिया, किन्तु भगवती से पूछती हूँ कि किस कर्म का यह इस प्रकार का महाभयंकर फल है ।' गणिनी ने कहा --'पुत्री ! थोड़ी-सी अज्ञान चेष्टा का यह फल है। इसकी भयंकरता कैसी ? सुनो, थोड़-से कर्म से जो मैंने पाया।' रत्नवती ने कहा- 'भगवनी मेरे ऊपर यह आपकी बहुत बड़ी कृपा होगी, मैं अत्यधिक सावधान हूँ।' गणिनी ने कहा-कोशल देश का नरसून्दर नाम का राजा था। उसकी मैं इस जन्म की धर्मपत्नी थी। एक बार वह घोड़े पर सवार होकर गया, अभिमानी घोड़ा (उसे) हर ले गया और महावन में छोड़ दिया । उस राजा ने मध्याह्नकाल में उस महावन के एक निकुंज में एक अपूर्वदर्शनवाली स्त्री देखी। स्त्री ने कहा-'महाराज ! स्वागत है, बैठो। राजा ने कहा-'तुम कौन हो? यह कौन-सा स्थान है ?' उसने कहा-'मैं मनोहरा नामक यक्षिणी हूँ और यह विन्ध्यवन है।' राजा ने कहा-'तुम यहाँ अकेली क्यों हो ?' उस यक्षिणी ने Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001882
Book TitleSamraicch Kaha Part 2
Original Sutra AuthorHaribhadrasuri
AuthorRameshchandra Jain
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1996
Total Pages450
LanguagePrakrit, Sanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Story, & literature
File Size11 MB
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