SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 304
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ ७५४ [ समराइच्चकहा वा, जइ अकहणीयं न होइ । गुणचंदपडिबद्ध साहियं रयणवईए । भणियं च जाए- भयवइ, जहा तए समाइट्ठे तव परमत्थो । तहावि अज्जउत्ताकुलसुमरणमवि पीडेइ मं मंदभाइणि । गणिणीए भणियं - वच्छे, न तस्स संपयमकुसलं ति, धीरा होहि । रयणवईए भणियं - कहं भयवई वियाणइ । गणिणीए भणियं तुह सरविसेसाओ । रयणवईए भणियं कीइसो मज्झ सरविसेतो । गणिणीए भणिय-जारिस अविहवाए परमानंदजोए भत्तणो हवइ । रयणवईए भणियं -- भयवइ, न तए कुप्पियव्वं भणामि किंचि अहमाउलयाए । गणिणीए भणियं वच्छे, अकोवणो चेव तस्सिजणो होइ, किमेत्थमन्भत्थणाए । रयणवईए भणियं - भयवइ, जइ एवं ता को एत्थ पच्चओ, जं भयवईए आइट्ठ ति । गणिणीए भणियं - वच्छे, अलमेत्थ पच्चरण । न य वीयरागवयणमन्नहा होइ । दीयरागवणं च सरमंडलं । तदासेण य जंपियमिणं, न उण अग्नहा; तहावि एसो एत्थ पच्चओ ति सिग्धं तुहावगमननिमित्तं भणामि किंचि अहयं । न तए खिज्जियव्वं । रयणवईए भणियं आणवेउ भयवई । गणिणीए भणियं - सुण, एवं विहसरवईए नारीए गुज्झपएसे मसो हवइ सि सरमंडले पढिवं । एत्थ भवति । [ रत्नवत्या भणितं - कि भगवत्या अप्यकथनीयं वस्त्वस्ति इति ] गुणचन्द्रप्रतिबद्धं कथितं रत्नवत्या । भणितं च तया - भगवति ! यथा त्वया समादिष्टं तथैव परमार्थः, तथाप्यार्यपुत्रा कुशलस्मरणमपि पीडयति मां मन्दभागिनीम् । गणिन्या भणितम् - वत्से ! न तस्य साम्प्रतमकुशलमिति, धीरा भव । रत्नवत्या भणितम् - कथं भगवती विजानाति । गणिन्या भणितम् - तव स्वरविशेषात् । रत्नवत्या भणितम् - कीदृशो मम स्वरविशेषः । गणिन्या भणितम् - यादृशोऽविधवायाः परमानन्दयोगे भर्तुर्भवति । रत्नवत्या भणितम् - भगवति ! न त्वया कुपितव्यम्, भणामि किञ्चिदहमाकुलतया । गणिन्या भणितम् - वत्से ! अकोपन एव तपस्विजनो भवति, किमत्रभ्यर्थनया । रत्नवत्या भणितम् - भगवति ! यद्येवं ततः कोऽत्र प्रत्ययः, यद् भगवत्याऽऽदिष्टमिति । गणिन्या भणितम् - वत्से ! अलमंत्र प्रत्ययेन । न च वीतरागवचनमन्यथा भवति । वीतरागवचनं स्वरमण्डलम्, तदादेशेन च जल्पितमिदम्, न पुनरन्यथा, तथाप्येषोऽत्र प्रत्यय इति शीघ्र तवावगमननिमित्तं भणामि किञ्चिदहम्, न त्वया खेत्तव्यम् । रत्नवत्या भणितम् - आज्ञापयतु भगवती । गणिन्या भणितम् - शृणु, एवंविधरवरवत्या नार्या गुह्यप्रदेशे मषो भवतीति स्वरमण्डले पठितम् । अत्र च त्वं प्रमाणमिति । रत्नवत्या भणितम् - ने कहा- क्या भगवती से भी कोई अकथनीय वस्तु हैं ? ] रत्नवती ने गुणचन्द्र के विषय में कहा। उसने [ रत्नवती ने) कहा - 'भगवती ! जैसा आपने उपदेश दिया, वैसा ही परमार्थ है तथापि आर्यपुत्र के अकुशल का स्मरण भी मुझ मन्दभाग्यवाली को पीडित करता है ।' गणिनी ने कहा - 'पुत्री ! इस समय उनका अकुशल नहीं है, धीर होओ।' रत्नवती ने कहा- 'भगवती कैसे जानती हैं ?' गणिनी ने कहा- 'तुम्हारे स्वर विशेष से !' रत्नवती ने कहा - 'मेरा स्वर विशेष कैसा है ?' गणिनी ने कहा- 'जैसा पति के परम आनन्द के योग में सौभाग्यवती का होता है ।' रत्नवती ने कहा- 'भगवती ! आप कुपित न हों, मैं कुछ आकुलता से कह रही हूँ ।' गणिनी ने कहा 'पुत्री ! तपस्वीजन क्रोध न करनेवाले ही होते हैं । इस विषय में प्रार्थना से क्या ।' रत्नवती ने कहा- 'भगवती ! यदि ऐसा है तो भगवती ने जो कहा उसमें वया प्रमाण है ?' गणिनी ने कहा- 'इसमें प्रमाण की क्या बात है ? वीतराग के वचन अन्यथा नहीं होते हैं । वीतराग का वचन स्वरसमूह है, उसके आदेश से ही यह कहा, दूसरे प्रकार से नहीं, तो भी यह प्रमाण है, शीघ्र ही तुम्हारे आने के विषय में मैं कुछ कहती हूँ, तुम खेद मत करो। रत्नवती ने कहा- 'जो भगवती आज्ञा दें ।' गणिनी ने कहा - 'सुनो। इस प्रकार के स्वरवाली स्त्री के Jain Education International For Private & Personal Use Only - www.jainelibrary.org
SR No.001882
Book TitleSamraicch Kaha Part 2
Original Sutra AuthorHaribhadrasuri
AuthorRameshchandra Jain
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1996
Total Pages450
LanguagePrakrit, Sanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Story, & literature
File Size11 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy