SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 303
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ अट्ठमो भवो ] कुसलवेज्जं भयवंतं वीयरायं तदुवएसमुट्ठियं वा गुरुं निवेइऊणमप्पाणयं तस्स वयणेण पडिवन्ना सव्वदुक्खनिवारण संजमकिरियं वाहिज्जमाणा वि परीसहोवसग्गवेयणाए विमुच्चमाणा महामोहवाहिणा अंतो-पसमारोगलाभधिईए अगणे माणा तं परीसहा दिबज्झदुक्खं ईसि अविमुक्का वि संकिले सवाहिणा परमगुरुवीय रागाणा सेवणाए संजायविमोवखनिच्छमई सयला बाहाखयसमुन्भूय परमपणिहाणभावारोग्गसमेया वीयराया विय न खलु नो सुहिया निच्छएण । जओ पणट्ठे तेसि मोहतिमिरं, आविभूयं सम्मनाणं, नियत्तो असग्गहो, परिणयं संतोसामयं अवगया असविकरिया, तुट्टपाया भववल्ली, थिरोहूयं भाणरयणं, आसन्नं परमसिवसुहं । ता एवं परमर्थांचताए थेवा एत्थ सुहिय | बहवे उण दुक्खियत्ति । लोयदिट्ठीए उ वच्छे अन्नारिसे सुहदुक्खे । लोएहि जम्मजरामरणघत्था वि पाणिणो आहारा संपत्तिमेत्तेण कूरवाहसरगोयरगया विय हरिणया जवसाइसंपत्तीए चेव सुहिय ति वुच्चति, अन्नादुक्खिया । ण य इमं दिट्टिमहिगिच्च तुह दुक्खियत्ते कारणमवगच्छामि | साहेहि समापन्ननिर्वेश] गवेषयित्वा भावतः कुशलवैद्यं भगवन्तं वीतरागं तदुपदेशसमुत्थितं वा गुरुं निवेद्यात्मानं तस्य वचनेन प्रतिपन्नाः सर्व दुःखनिवारणी संयमक्रियां बाध्यमाना अपि परिषहोपसर्गवेदनया विमुच्यमाना महामोहव्याधिना अन्त उपशमारोग्य लाभधृत्याऽगणयन्तरतं परिषहादिबाह्यदुःखमीषदविमुक्ता अपि संक्लेशव्याधिना परमगुरुवीतरागाज्ञासेवनया सञ्जातविमोक्ष निश्चयमतिः सकलाबाधाक्षयसमुद्भूतपरम प्रणिधानभावा रोग्यसमेता वीतरागा द्दव न खलु नो सुखिता निश्चयेन । यतः प्रनष्टं तेषां मोहतिमिरम्, आविर्भूतं सम्यग्ज्ञानम्, निवृत्तोऽसद्ग्रहः, परिणतं संतोषामृतम्, अपगताऽसत्क्रिया त्रुटितप्राया भववल्ली, स्थिरीभूतं ध्यानरत्नम्, आसन्नं परमशिवसुखम् । तत एवं परमार्थचिन्तायां स्तोका अत्र सुखिता बहवः पुनर्दुःखिता इति । लोकदृष्टया तु वत्से ! अन्यादृशे सुखदुःखे, लोकैर्जन्मजरामरणग्रस्ता अपि प्राणिन आहारादिसम्प्राप्तिमात्रेण क्रूरव्याधशरगोचरगता इव हरिणका यवसादिसम्प्राप्त्यैव सुखिता इत्युच्यन्ते, अन्यथा दुःखिताः । न चेमां दृष्टिमधिकृत्य तव दुःखितत्वे कारणमवगच्छामि । कथय वा यद्य कथनीयं न ७५३ पूर्वक कुशल वैद्य भगवान् वीतराग को खोजकर अथवा वीतराग भगवान् के उपदेश से पूर्णरीति से आरोग्यलाभ किये हुए गुरु से अपना निवेदन करते हैं और तब उनके वचनों के अनुसार समस्त दुःखों का निवारण करने वाली संयम क्रिया को प्राप्त करते हैं । परिषह, उपसर्ग और वेदना से बाधित किए जाते हुए भी महामोहरूपी व्याधि से मुक्त होकर अन्त में आरोग्यलाभ होने के धैर्य से उस बाह्य परिषहादि दुःख को न मानते हुए भी संक्लेश रूप व्याधि से परमगुरु वीतराग की आज्ञा का सेवन कर मोक्ष के निश्चय की बुद्धि करते हैं और फिर समस्त बाधाओं के क्षय से उत्पन्न परम समाधिभाव रूप आरोग्य से युक्त होकर वीतरागों के निश्चय से समान सुखी न हों - ऐसा नहीं है अर्थात् सुखी होते ही हैं; क्योंकि उनका मोहरूपी अन्धकार नष्ट हो जाता है, मिथ्याज्ञान छूट जाता है । सन्तोषरूपी अमृत पूर्णवृत्ति को प्राप्त हो जाता है, असत्त्रियाएँ दूर हो जाती हैं. संसाररूपी लता प्रायः टूट जाती है, ध्यानरूपी रत्न स्थिर हो जाता है, उत्कृष्ट मोक्षरूपी सुख समीपवर्ती होता है । अत: इस संसार में इस प्रकार के परमार्थ की चिन्ता करनेवाले सुखी कम हैं और दु:खी ज्यादा हैं । हे बेटी ! लौकिक दृष्टि से तो सुख और दुःख दोनों अन्य ही प्रकार के होते हैं। इस संसार में ही लोग जन्म, बुढ़ापा और मरण से ग्रस्त हुए प्राणियों को आहारादि की प्राप्ति मात्र से ही उसी प्रकार सुखी कहते हैं, जिस प्रकार दुष्ट: बहेलिया के बाण का लक्ष्य बने हुए हरिणों की जो आदि की प्राप्ति सुख मानी जाती है, नहीं तो वे दुःख जाते हैं । इस दृष्टि से मैं तुम्हारे दुःख का कारण नहीं जानती हूँ अथवा यदि अकथनीय न हो तो कहो। [ रत्नवती Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001882
Book TitleSamraicch Kaha Part 2
Original Sutra AuthorHaribhadrasuri
AuthorRameshchandra Jain
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1996
Total Pages450
LanguagePrakrit, Sanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Story, & literature
File Size11 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy