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[ समराइच्चकहा
अन्नहा कहं कुमारस्स ईइसी अवत्थ ति । उपसप्पिऊण भणियं च णं । कुमार, किमेयं बालचेद्रियं । तेण भणियं पायपरिणइं मे पुच्छसु । सेणकमारेण भणियं अलं पावचिताए। धन्नो तुम, जेण तायस्स पुत्तो ति। ता करेहि रायकमारोचियं किरियं, जेण तारसमीवं गच्छामो ति। तओ अणिज्छमाणो विभूसिओ सहत्थेण, विलित्तो मलयचंदणरसेण, परिहाविओ खोमजुवलयं, गेहाविओ तंबोलं नीओ नरवइसनीवं । पाडिओ चलणेसु । वोलियं बद्धावणयं । अइक्कंतो कोइ कालो वीसंमगमिणं परमसुहमगुहवंतस्स सेगकुमारस्स, संकिलिवित्तस्स य अणभिन्नसुहसरूवस्स विसेणस्स।
अन्नया य पवत्ते कोमइमहसवे उज्जाणगएस नायरएस निग्गए नरवइम्मि भरमवगए कोलापमोए अप्पक्किओ चेव वियरिओ मत्तवारणो, तोडियाओ अंदुयाओ, दलिओ आलाणखंभो, भग्गा महापायवा, गालिओं' आहोरणो, धाविओ जणवयाभिमुहं, उद्धाइओ कलयलो, भिन्नाइं आवाणयाई, पणढाओ चच्चरीओ, 'हा कहमियं' ति विसंणो नयरिलोओ। एत्थंतरम्मि इमं चेवावगच्छिय जंपियं
अन्यथा कथं कुमारस्येदृश्यवस्थेति । उपसl भणितं च तेन-कुमार ! किमेतद् बालचेष्टितम् । तेन भणितम् - पापपरिणति में पृच्छ । सेनकुमारेण भणितम् -अलं पापचिन्तया। धन्यस्त्वं येन तातस्य पुत्र इति । ततः कुरु राजकुमारोचितां क्रियाम्, येन तातसमीपं गच्छाव इति । ततोऽनिच्छन् वि दूषितः स्वहस्तेन, विलिप्तो मलयचन्दनरसेन, परिधापितः क्षौमयुगलं, ग्राहितस्ताम्बूलं नोतो नरपतिसमोपम् । पातितश्चरणयोः। व्यतिक्रान्तं वर्धापनकम् । अतिक्रान्तः कोऽपि कालो विश्रम्भगभितं परमसुखमनुभवतः सेनकुमारस्य, संक्लिष्टचित्तस्य च अनभिज्ञ (ज्ञात) सुखस्वरूपस्य विषेणस्य।
अन्यदा च प्रवृत्ते कौमुदीमहोत्सवे उद्यानगतेषु नागरकेषु निर्गते नरपतौ भरमुपगते क्रीडाप्रमोदे अप्रतकित एव विचरितो मत्तवारणः । नोटिता अन्दुकाः (शृङ्खला:), दलित आलानस्तम्भः, भग्ना महापादपाः, गालितः (पातितः) आधोरणः, धावितो जनवजाभिमुखम्, उद्घावितः (प्रसृतः) कलकल:, भिन्नान्यापणानि, प्रनष्टाश्चर्चयः, 'हा कथमिदम्' इति विषण्णो नगरीलोकः। अत्रान्तरे
अन्यथा कुमार की ऐसी अवस्था कैसे होती ? समीप में पहुंचकर उसने कहा---'कुमार ! यह क्या बालकों जैसी चेष्टा है ?' उसने कहा--'मेरी पापपरिणति से पूछो।' सेनकुमार ने कहा-'पाप की चिन्ता से बस अर्थात् पाप की चिन्ता व्यर्थ है । तुम धन्य हो जो कि पिता जी के पुत्र हो । अत: राजकुमारोचित क्रियाओं को करो, जिससे पिता जी के पास दोनों चलें।' अनन्तर उसके न चाहने पर अपने हाथों से उसे विभूषित किया, मलय चन्दन के रस से लिप्त किया, वस्त्रयुगल को पहिनाया। पान लिवाया (और) राजा के पास ले गया। दोनों चरणों में गिराया । महोत्सव समाप्त हुआ। विश्वास से गर्भित परमसुख का अनुभव करते हुए सेनकुमार का कुछ समय व्यतीत हो गया और सुख के स्वरूप को न जानते हुए दुःखी मनवाले विषेण का भी कुछ समय व्यतीत हुआ।
एक बार कौमुदी महोत्सव आने पर जब नागरिक उद्यान में गये, राजा बाहर निकला, क्रीड़ा प्रमोद अतिरेक को प्राप्त हो गये तब बिना सम्भावना के ही मतवाला हाथी विचरण करने लगा। उसने साँकलें तोड़ दी, बन्धन-स्तम्भ को चीर डाला, बड़े-बड़े वृक्ष नष्ट कर दिये, महावत को गिरा दिया, लोगों के समूह के सामने दौड़ा, कोलाहल उठा, दुकानेंट गयीं। आमोद-प्रमोद नष्ट हो गया, 'हाय यह क्या हुआ'-इस प्रकार नगर के लोग दुःखी हुए। इसी बीच यह जानकर राजा ने कहा, 'अरे शीघ्र ही दुष्ट हाथी को पकड़ो। उसने लोक का
१. गाहियो आरोहणो-क । २, सयं इम-क।
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