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________________ सत्तमो भवो] ५५९ राइणा भणियं-बच्छ, अलं तेण कुलदूसणेणं। कुमारेण भणियं - ताय, परिच्चय इमं मिच्छावियप्पं। कहं कुमारो अकज्जमणुचिट्ठिस्सइ' ति। राइणा भणियं-सुद्धसहावो तुमं, न उण सो एरिसो त्ति । कुमारेण भणियं- ताय, कहं न ईइसो जो इमीए वयणिज्जलज्जाए उज्झिऊण कुमारभावोवियं चावल्लं' अवलंबिऊग गंभीरयं अपसायमंते वि य तुमम्मि असंपाययंतो उचियकरणिज्जं अपरिच्चयंतो कुलहरं एवं चिटुइ ति । राइणा भणियं-वच्छ, जइ एवं तुझ निबंधो, ता पेसेहि से आहवणनिमित्तं कंचि निययं ति । कुमारेण भणियं-ताय, अहमेव गच्छामि । राइणा भणियं-एवं करेहि ति। गओ सेणकुमारो। पविट्ठो विसेणमंदिरं । दिट्ठो तव्वइयरचिताए चेव अच्चंतदुम्बलो उज्झिएहिं आहरणएहिं परिमिलाणेणं वयणकमलेणं विमणपरियणसमेओ असुंदरं सयणीयमवगओ विसेणकमारो ति। चि तयं च णेणं-अहो सच्चयमिणं ।। संतगुणविप्पणासे असंतदोसुब्भवे य जं दुक्खं । तं सोसेइ समुदं कि पुण हि यं मणुस्साणं ॥५६०॥ प्रमोदः । राज्ञा भणितम्-वत्स ! अलं तेन कुलदूषणेन । कुमारेण भणितम्-तात ! परित्यजेमं मिथ्याविकल्पम्। कथं कुमारोऽकार्यमनुष्ठास्यतीति । राज्ञा भणितम् - शुद्धस्वभावस्त्वम्, न पुन:स ईदृश इति । कुमारेण भणितम्-तात ! कथं नेदृशो योऽनया वचनीयलज्जया उज्झित्वा कुमारभावोचितं चापलमवलम्ब्य गम्भीरतामप्रसादवत्यपि त्वयि असम्पादयन् उचितकरणीयमपरित्यजन् कुलगृहमेवं तिष्ठतीति । राज्ञा भणितम्-वत्स ! यद्येवं तव निर्बन्धस्ततः प्रेषय तस्या ह्वान निमित्तं कञ्चिद् निजकमिति । कुमारेण भणितम्-तात ! अहमेव गच्छामि। राज्ञा भणितम्-एवं कुर्विति । गतः सेनकुमारः। प्रविष्टो विषेणमन्दिरम् । दृष्टस्त द्वयतिकरचिन्तयैवात्यन्त दुर्बल उज्झितैराभरणैः परिम्लानेन वदन कमलेन विमनःपरिजनसमेतोऽसुन्दरं शयनीयमुपगतो विषेणकुमार इति । चिन्तितं च तेन-अहो सत्यमिदम् सद्गुणविप्रणाशे असदोषोद्भवे च यद दुःखम् । तच्छोषयति समुद्रं किं पुनर्ह दयं मनुष्याणाम् ॥५६०।। दूषित करने वाले से सम्बन्ध रखना व्यर्थ है।' कुमार ने कहा-'पिता जी ! इस मिथ्या विकल्प को छोड़ दीजिए, कुमार कैसे अकार्य करेंगे ?' राजा ने कहा---'तुम शुद्ध स्वभाव वाले हो, वह ऐसा नहीं है।' कुमार ने कहा'पिता जी ! कैसे ऐसा नहीं है जो कि इस निन्दा की लज्जा से कुमारोचित चंचलता को छोड़कर, गम्भीरता का अवलम्बन कर, आप पर प्रसन्न न होकर भी, योग्य कार्यों को न कर, कुलगृह (पितृगृह) को न छोड़ता हुआ वह इस तरह रह रहा है।' राजा ने कहा - 'वत्स ! यदि तुम्हारी हठ ऐसी है तो उसको बुलाने के लिए किसी अपने आदमी को भेजो।' कुमार ने कहा-'पिता जी ! मैं ही जाता हूँ।' राजा ने कहा- 'यही करो।' सेनकुमार गया । विषेण के महल में प्रविष्ट हुआ। उसी घटना की चिन्ता से ही अत्यन्त दुर्बल, आभूषणों का परित्याग किये हुए, म्लान मुखवाला, दुःखी परिजनों के साथ, असुन्दर शय्या पर स्थित विषेणकुमार दिखाई दिया। उसने सोचा - ओह ! यह सत्य है सद्गुणों का विनाश और असदोषों का उद्भव होने पर जो दुःख होता है वह समुद्र को भी सुखा देता है मनुष्यों के हृदय की तो बात ही क्या है ॥५६०॥ १. -सत्ति-ख । २. चावल-क...३. -यंतुचिय-क । ४. दिट्ठो य णे -क। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001882
Book TitleSamraicch Kaha Part 2
Original Sutra AuthorHaribhadrasuri
AuthorRameshchandra Jain
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1996
Total Pages450
LanguagePrakrit, Sanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Story, & literature
File Size11 MB
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