SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 138
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ ५८८ [समराइच्चकहा ___ अइक्कता कइवि वासरा । पउणो वणो। हाओ सोहणदिणं । कयं राइणा जहोचियं करणिज्ज। वायाविया चारयकालघंटा। दवावियं महादाणं । पूइयाओ नयरिदेवयाओ। आहणाविया आणंदभेरी। समागया विसेसुज्जलनेवत्थधारिणो रायनायरा। तओ वज्जतमंगलतूररवावरिय दसामंडलं नच्चतरायनायरलोयं तूरियविइज्जमाणकडिसुत्त कंठयं विइण्णपडवासधूसरियनहयलं सयलनयरिजणच्छेरयभयं कयं वद्धावणयं ति । इओ य सो विसेणकुमारो तप्पभिइमेव 'हा न संपन्नमहिलसियं' ति अच्चंतदुंमणो अपेच्छमाणो नरवई असंपाययंतो उचियकरणिज्ज अणिग्गच्छमाणो निययगेहाओ अजंपमाणो सह परियणेणं ठिओ एत्तिए दिवसे, नागओ य बद्धा वणए । मणिओ एस वइयरो धणगुणभंडारियाओ सेणकुमारेण । चितियं च ण । जुत्तमेवं एयं कुमारस्स । दुस्प्तहो असंताभिओगो । महसिणेहमोहिएण य दारुणमणचिट्टियं ताइणं, जमत्तिय पिकालं कमारदसणं परिहरियं ति। ता विन्नवेमि तायं. जेण कमारं इह आणे त्ति। कीडसो तेण विणा आणंदो। तओचलणेस निडिऊण विन्नत्तो नरवई - ताय, आणेह इह विसेणकुमारं । तईसणूसुओ अहं। कोइसो तेण विणा पमोओ। अतिक्रान्ताः कत्यपि वासराः। प्रगुणो व्रणः। स्नातः शोभनदिवसे । कृतं राज्ञा यथोचितं करणीयम्। वादिता चारककालघण्टा । दापितं महादानम्। पूजिता नगरीदेवताः आघातिता आनन्दभेरी । समागता विशेषोज्ज्वलनेपथ्य धारिणो राजनागरकाः। ततो वाद्यमानमङ्गलतूर्य रवापूरितदिग्मण्डलं नृत्यद्राजनागरलोकं त्वरितवितीर्यमाणकटिसूत्रकण्ठकं वितीर्णपटवासधूसरितनभस्तलं सकलनगरीजनाश्चर्यभूतं कृतं वर्धापनकमिति । इतश्च स विषेणकुमारस्तत्प्रभृत्येव 'हा न सम्पन्नमभिलषितम्' इत्यत्यन्तदुर्मना अप्रेक्षमाणो नरपतिमसम्पादयन् उचितकरणीयमनिर्गच्छन् निजगेहाद् अजल्पन सह परिजनेन स्थित एतावतो दिवसान्, नागतश्च वर्धापनके । श्रुत एष व्यतिकरो धनगुणभाण्डागारिकात् सेनकुमारेण । चिन्तितं च तेन-युक्तमेवैतत्कुमारस्य । दुःसहोऽसदभियोगः । मम स्नेहमोहितेन च दारुणमनुष्ठितं तातेन यदेतावन्तमपि कालं कुमारदर्शनं परिहृतमिति । ततो विज्ञपयामि तातं येन कुमारमिहानयतीति कीदृशस्तेन विनाऽऽनन्दः । ततश्चरणयोनिपत्य विज्ञप्तो नरपतिः । तात ! आनयतेह । विषेणकुमारम् । तद्दर्शनोत्सुकोऽहम् । कीदृशस्तेन बिना कुछ दिन बीत गये। घाव ठीक हुआ। शुभ दिन में स्नान किया। राजा ने यथायोग्य कार्य किया । प्रयाणकालीन घण्टा बजवाया। महादान दिलाया। नगरदेवी की पूजा की। आनन्दभेरी पिटवायी। विशेष उज्ज्वल वेष धारण कर राज्य के नागरिक आये। अनन्तर नगर के समस्त लोगों को आश्चर्य में डालनेवाला महोत्सव किया। उस समय बजाये जाते हुए मंगलवाद्यों के शब्द से आकाशमण्डल गूंज रहा था। राजकीय पुरुष और नागरिक नाच रहे थे, जल्दी-जल्दी कटिसूत्र और हार धारण किये जा रहे थे, फैलाये हुए सुगन्धित द्रव्य से आकाशतल धूसरित हो रहा था। इधर वह विषेणकुमार उसी समय से ही-'हाय ! मनोरथ सम्पन्न नहीं हुआ'--- इस प्रकार अत्यन्त दुःखी मन हो, राजा को दिखाई न देता हुआ, योग्य कार्यों को न करता हुआ, अपने घर से न निकलता हुआ, सेवकों से बातचीत न करता हुआ इतने दिनों तक रहा, महोत्सव में नहीं आया । इस वृत्तान्त को धनगुण नापक भण्डारी से सेनकुमार ने सुना । उसने सोचा-कुमार के लिए यह उचित ही है । झूठा अभियोग सहन करना कठिन है। मेरे स्नेह से मोहित हुए पिता जी ने कठिन कार्य किया जो कि इतने समय तक कुमार के दर्शनों से बचाया। अतः तात से निवेदन करता हूँ जिससे कुमार यहाँ लाये जाएँ। उसके बिना कैसा आनन्द ? अनन्तर दोनों चरणों में गिरकर राजा से निवेदन किया, 'पिता जी ! विषेणकुमार को यहाँ लाओ । मैं उसके दर्शन का उत्सुक हूँ। उसके बिना प्रमोद कैसा ?' राजा ने कहा--'वत्स ! उस कुलदूषण से बस अर्थात् कुल को For Private & Personal Use Only Jain Education International www.jainelibrary.org
SR No.001882
Book TitleSamraicch Kaha Part 2
Original Sutra AuthorHaribhadrasuri
AuthorRameshchandra Jain
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1996
Total Pages450
LanguagePrakrit, Sanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Story, & literature
File Size11 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy