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सत्तमो भवो]
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अन्नहा एवं ति कुविओ राया विसे गस्स। समाणतं च णेणं-हरे, नियासेहतं मम रज्जाओ कुलदूसणं विसेणं ति वावाएह एए महासामिसालवच्छले सुभिच्चे। एत्थंतरम्मि चलणे निधडिऊण जंपियं सेणेग ताय, मा साहसं मा साहसं ति। कज्जमाणे य एम्मि पावेमि अहं नियमेणं तायसोगकारिणि अवत्थं ति निवेइयं तायस्स। तओ 'अहो पुरिसाणमंतरं' ति चितिऊण जंपियं नरिदेण-- वच्छ, जइ एवं, ता हुमं देव जाणसि; न उण जुत्तमेयं ति । तेणेण भणियं ताय, अणुरि, हिओ म्हि एएस अवावायणेण कुमारसंगहेण य । मोयाविधा वावायगा थेवावराह ति । पूरुण पेसिया सेणेण । एत्थंतरम्मि वणसुत्थभाइसिऊण निग्गओ राया। जाओ लोयवाओ। अहो विसेणेण असोहणमणुचिट्ठियं । तमागओ सेणकुमारकण्णविसयं । चितियं च णेण । अहो निरवराहा वि नाम पाणिणो एवं अयभायणं हवंति । अन्नहा कहं कुमारो, कहमीइसमसज्जणचरियं । असंभावणीयमेयं । निरंकुसो य लोओ, न जुत्ताजत्तं वियारेइ। अहवा नस्थि दोसो जमस्स कुमारस्स चेव पुवकयकम्मपरिणई एस त्ति । निमित्तं चाहमेत्थं ति दूमिओ नियचित्तेणं । सत्का इति । ततो 'नान्यथैतद' इति कपितो राजा विषेणस्य । समाज्ञप्तं च तेन- अरे निर्वासयत तं मम राज्य त् कुलदूषणं विषेणमिति । व्यापादयतैतान् महारवामिसालवत्सलान् सुभत्यान् । अत्रान्तरे चरणयोनिपत्य जल्पितं सेनेन--तात ! मा साहसं मा साहसमिति । क्रियमाणे चैतस्मिन प्राप्नोम्यहं नियमेन तातशोककारिणीमवस्थामिति निवेदितं तातस्य । ततोऽहो पुरुषाणामन्तरमिति चिन्तयित्वा जल्पितं नरेन्द्रेण- वत्स ! यद्येवं ततस्त्वमेव जानासि, न पुनर्युक्तमेतदिति । सेनेन भणितम्--तात ! अनुगृहोतोऽस्मि एतेषामव्यापादनेन कुमारसंग्रहेण च। मोचिता व्यापादकाः स्तोकापराधा इति । पूजयित्वा प्रेषिता सेनेन । अत्रान्तरे व्रणसुस्थमादिश्य निर्गतो राजा। जातो लोकवादः । अहो विषेणेनाशोभन मनुष्ठितम् । समागतः सेनक मारकर्णविषयम्। चिन्तितं च तेनअहो निरपराधा अपि नाम प्राणिन एवमयशोभाजनं भवन्ति । अन्यथा कथं कुमारः, कथमीदृशमसज्जनचरितम् । असम्भावनीयमेतद् । निरंकुशच लोकः, न युक्तायुक्त विचारयति । अथवा नास्ति दोषो जनस्य, कमारस्यैव पूर्वकृतकर्मपरिणतिरेषेति । निमित्तं चाहमति दूनो निजचित्तेन । के साथ हैं । पश्चात् 'यह बात अन्यथा नहीं है'-ऐपा सोचकर राजा विषेण पर कुपित हुआ। उसने आज्ञा दी- 'अरे, मेरे राज्य से कुलदुषण विषेण को निकाल दो। महास्वामी रूपी सियार के प्रेमी इन सुभत्यों को मार दो।' इसी बीच दोनों पैरों में पड़कर सेन ने कहा - "पिता जी ! दण्ड मत दो, हण्ड मत दो। ऐसा किये जाने पर मैं निश्चित ही पिता जी को शोक उत्पन्न करनेवाली अवस्था को प्राप्त हो जाऊँगा' ऐसा पिता जी से निवेदन किया। अनन्तर 'ओह, पुरुषों का अन्तर !'- ऐसा सोचकर राजा ने कहा---'वत्स ! यदि ऐसा है तो तुम ही जानो; किन्तु यह ठीक नहीं है ।' सेन ने कहा-'पिता जी ! इनको न मारने और कुमार की रक्षा के कारण मैं अनुगृहीत है।' सेन ने 'साधारण अपराध है'-- कहकर आदर के साथ मारनेवालों को छोड़ दिया। इसी बीच घाव को ठीक करने का आदेश देकर राजा निकल गया। लोगों में चर्चा फैल गयी। ओह ! विषेण ने बुरा किया। (यह बात) सेन के भी कानों में आयी । सेन ने सोचा -निरपराध भी प्राणी इस प्रकार अपश के पात्र होते हैं नहीं तो कैसे कुमार और कैसा यह असज्जनों क" आचरण ! वह असम्भव है और लोक निरंकुश है, युक्त-अयुक्त का विचार नहीं कर रहा है। अथवा लोगों का दोष नहीं है, यह कुमार के ही पहिले किये हुए कर्मों की परिणति है। मैं यहाँ पर निमित्त हुआ - ऐसा सोचकर वह अपने मन में युःखी हुआ।
१. किग्जमाणे-क। , वायगा-क, ख।
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