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[ समराइच्चकहा
पुच्छिया धाय ।। हरे, कि पुण तुमहिं एवं वसिय ति। तेहि भणियं-देव्वं पुच्छह ति। राइणा भणियं-केण देवो चोइओ। तेहि मषियं देव, न याणामो त्ति। राइणा भगियं - नाणिमित्तं बाबायणं ति । ता कि पुण निमित्तं कुओ वा तुम्भे, कस्स वा संतिय त्ति। तओन जंपियमेएहि। पुणो पुछिय, पुणो दिन जंपति । कविओ राया। अच्छोडाविया कसेहिं । तओ कापरयाए भावस्स दुनिसहयाए कसप्पहाराणं सावेरखयाए जोवियस्स कुविययाए नरिदम्स जपियमणेहिं - देव, न किचि एत्थ निमितं; अवि य एत्थेव अम्हे कुमारविसेणसंतिया, तस्सेव सासगणं इमं अमोहि वसियं । संस्यं देवोपमाणं ति कहं कुमारबिसेणसासणं ति कुविओ राया विसेण स भणियं च सेणेण - ताय, न खलु इम एवं वेवावगंतव्वं ति । कहं पुण सो महाणुभावो अमच्छरिजोस पबग्गे दइओ माहुवाए लोलुमो निम्मल जसे अवच्चं तायस्स इमं ईइसं उभयलोयविरुद्धं मंतइस्सइ। ता जहा कहंचि जीवियभीरुपयाए इमं जंपियमिमेहिं । करेउ ताओ पसायं, मोयावेउ ए जीवियभीरुए ति । तओ 'कस्स संतिय' त्ति गवेसावियं राइणा । मुणियं पहाणपरियणाओ, जहा कुमारसंतिय ति। तओ 'न
जानामि' | पृष्टा घातका:-अरे ! किं पुनर्युष्माभिरेतद् व्यवसितमिति । तैर्भणितम् दैवं पच्छतेति । राज्ञा भणितम्-केन देवश्चोदितः । तैर्भणितम्-देव ! न जानीम इति । राज्ञा भणितम -- नानिमित्तं व्यापादन मिति । ततः किं पुननिमित्तम्, कुतो वा यूयम्, कस्य वा सत्का इति । ततो न जल्पित मेतैः। पुनः पृष्टाः, पुनरपि न जल्पन्ति । कुपितो राजा। आच्छोटिताः कषः । ततः कातरतया भावस्य दुर्विषहतया कषप्रहाराणां सापेक्षतया जीवितस्य कुपिततया नरेन्द्रस्य जल्पित मेभिःदेव ! न किञ्चिदत्र निमित्तम्, अपि चात्रैव वयं कुमारविषेणसत्काः, तस्यैव शासनेनेदमस्माभिव्यंव सतम, साम्प्रतं देवः प्रमाणमिति । 'कथं कुमारविषेणशासनम्' इति कणितो राजा विषणस्य । भणितं च सेनेन--तात ! न खल्विदमेवमेवावगन्तव्यमिति । कथं पुनः स महानुभावोऽमत्सरिक: स्वजनवर्गे दयितः साधुवादे लोलुपो निर्मलयशसि अपत्यं तातस्येदमीदृशमुभयलोकविरुद्ध मन्त्रयिष्यति । ततो यथाकथंचिज्जीवितभीरुकतयेदं जल्पितमेभिः । करोतु तातः प्रसादम, मोचयत्वेतान जीवितभी रुकानीति । ततः 'कस्य सत्काः' इति गवेषितं राज्ञा। ज्ञातं प्रधानपरि जनाद् यथा कमा
क्या है ?' उसने कहा -'पिता जी ! नहीं जानता हूँ।' घातकों से पूछा गया- 'अरे तुम लोगों ने ऐसा कार्य क्यों किया?' उन्होंने कहा-'भाग्य से पूछो!' राजा ने कहा --'किस भाग्य से प्रेरित हुए हो?' उन्होंने कहा नहीं जानते हैं।' राजा ने कहा-'मारना बिना कारण नहीं है । अतः क्या कारण है, तुम लोग वहाँ से आये हो और किसके साथ हो ?' उस पर भी ये लोग नहीं बोले । बार-बार पूछा फिर भी नहीं बोले ।' राजा कुपित हुआ। कोड़ों का प्रहार किया गया । अनन्तर भावों की विकलता, कोडों के प्रहारों का कठिनाई से सहन होना, प्राणों की सापेक्षता तथा राजा के कुपित होने के कारण ये लोग बोले-'महाराज ! इसका कोई दूसरा कारण नहीं है अपितु हम लोग यहाँ विषेणकुमार के साथ हैं, उन्हीं की आज्ञा से हम लोगों ने यह कार्य किया है। अब महाराज प्रमाण हैं।' 'कैसी कुमार विषेश की आज्ञा?' कहकर राजा विषेण पर कूपित हआ। सेन ने कहा---'इसको ऐसा ही मत मानो। वह महानुभाव जो कि स्वजनों के प्रति दाह से रहित है, मधुर बोलने का प्रेमी है, निर्मल यश का लोभी है और पिताजी की सन्तान है, कैसे इस प्रकार दोनों लोकों के विरुद्ध सलाह देगा ? अत प्राणों के प्रति भयभीत होने के कारण इन लोगों ने जो कुछ भी कह दिया है। पिता जी प्रसन्न हों, प्राणों से भयभीत इन लोगों को छोड़ दें।' अनन्तर 'किसके साथ हैं'-- राजा ने इसका पता लगाया । प्रधान परिजनों से ज्ञात हुआ कि कुमार
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