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________________ सत्तमो भवों ] ५८५ सेणकमारेण भणियं-भो किनिमितमागया। तेहि भणियं-अस्थि किंचि गुरुनिदेसवतव्वं; ता विवित्तदेसमाहिह। तओ परत्थसंपायणसुद्धचित्तयाए 'गुरुवच्छला तवस्सिणो, थेवो य न एत्थ दोसो' ति चितिऊण गओ भवणुज्जाणभूसणं एलालयावणं । तत्थ पुण तक्खणा चेव अवहडा से छरिया, कढियाइं मंडलग्गाई. पहओ एगेण खंघदेसे। तओ 'हा किमेयं' ति चितिऊण आसुरुत्तो कुमारो वलिओ वामपासेण । तओ अचलिययाए सत्तस्स उकडयाए पुरिसयारस्स संखद्धयाए वावायगाणं जेऊण ते गहियाइं मंडलग्गाई। दिळं चिमं उज्जाणवालियाए । घोसियं च णाए। 'किमयं ति उद्धाइओ कलयलो। समागया अट्ट पाहरिया। कढियाइं करवालाइं। उद्धाइया पहरिउं । निवारिया कमारेण । हरे किमेएण मयमारणेणं। खुद्धा खु एए तवस्सिया। वावन्नो य एएसि पुरिसयारो। परिचत्ता एए सफलजीवियनिवासेणमहिमाणेणं । पडिवन्ना विसयभावं दयाए, अद्धासिया निरत्थयजीयलोहेण । ता अलमेएसि वावायणेणं । एत्थंतरम्मि इमं चेव वइयरमायणिऊण समागओ राया। बंधाविया णेण वावायगा । भणिओ य कुमारसेणो 'वच्छ, किमेयं' ति । तेण भणियं-'ताय न याणामि'। प्रविष्टा एते। सेनकुमारेण भणितम्-भोः किंनिमित्तमागताः । तैर्भणितम्-अस्ति किञ्चिद् गुरुनिदेशवक्तव्यम् , ततो विविक्तदेशमधितिष्ठत । ततः परार्थ सम्पादनशुद्धचित्ततया 'गुरुवत्सलाः तपस्विनः, स्तोकश्च नात्र दोषः' इति चिन्तयित्वा गतो भवनोद्यानभूषणमेलालतावनम् । तत्र पुनः तत्क्षणादेवापहृता तस्य छुरिका, कृष्टानि मण्डलामाणि, प्रहत एकेन स्कन्धदेशे। ततो 'हा किमेतद्' इति चिन्तयित्वा आसुरुत्तो (अतिकुपितः) कुमारो वलितो वामपाश्र्वेण । ततोऽचलिततया सत्त्वस्य उत्कटतया पुरुषकारस्य संक्षुब्धतया व्यापादकानां जित्वा तान् गृहीतानि मण्डलाग्राणि । दृष्टं चेदमुद्यानपालिकया । घोषितं चानया। 'किमेतद्' इति उद्धावितः (प्रसृतः) कलकलः । समागता अष्ट प्राहरिकाः। कृष्टानि करवालानि । उद्घाविताः प्रहर्तुम् । निवारिताः कुमारेण । अरे ! किमेतेन मृतमारणेन । क्षुब्धाः(द्राः) खल्वेते तपस्विकाः । व्यापन्नश्चतेषां पुरुषकारः । परित्यक्ता एते सफलजीवितनिवासेनाभिमानेन । प्रतिपन्ना विषयभावं दयायाः, अध्यासिता निरर्थकजीवितलोभेन । ततोऽलमेतेषां व्यापादनेन । अत्रान्तरे इमं चैव व्यतिकरमाकर्ण्य समागतो राजा। बन्धितास्तेन व्यापादकाः । भणितश्त्र कुमारसेन: 'वत्स ! किमेतद्' इति । तेन भणितम् -तात ! न 'अरे, प्रवेश करो।' ये लोग प्रविष्ट हुए । सेनकुमार ने कहा-'(आप लोग) किस लिए आये हैं ?' उन्होंने कहागुरु की 'कुछ आज्ञा कहना है अतः एकान्त स्थान में चलें ।' तब परार्थ का सम्पादन करने में शुद्धचित्त वाला होने के कारण 'तपस्वी लोग गुरु के प्रति प्रेम रखनेवाले होते हैं (यह सामान्य बात है), इसमें कोई दोष नहीं'- ऐसा सोचकर मदन के उद्यान के भूषणस्वरूप इलायची के लतावन में गया। वहां पर उसी क्षण उसकी छुरी छीन ली गयी, तलवारें खिंच गयीं । एक ने (उसके) कन्धे पर प्रहार किया। अनन्तर हाय ! यह क्या ? ऐसा सोचकर अत्यन्त कुपित होकर कुमार बायीं ओर मुडा। पश्चात वीर्य की स्थिरता, पुरुषार्थ की उत्कटता, मारने वाले की संक्षब्धता के कारण उन्हें जीतकर (उनसे तलवारें ले लीं। यह उद्यानपालिका ने देख लिया। इसने आवाज दी-'यह क्या हो रहा है !' का शोर उठा । आठ प्रहरी आये । तलवारें खींचीं। प्रहार करने के लिए दौड़े। कुमार ने रोक लिया। 'अरे ! इन मरे हुओं को मारने से क्या लाभ ? ये तपस्वी क्षब्ध हए । इनका पुरुषार्थ मर गया है। सफल जीवन में निवास करनेवाले अभिमान ने इन्हें छोड़ दिया है, ये दया के विषयभाव को प्राप्त हुए हैं, निरर्थक जीवन के लोभ से ये अधिष्ठित हैं, अतः इनके मारने से बस, अर्थात् इनका मारना व्यर्थ है।' इसी बी व इसी घटना को सुनकर राजा आया। उसने मारनेवालों को बंधवाया और कुमार सेन से कहा- 'वत्स ! यह Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001882
Book TitleSamraicch Kaha Part 2
Original Sutra AuthorHaribhadrasuri
AuthorRameshchandra Jain
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1996
Total Pages450
LanguagePrakrit, Sanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Story, & literature
File Size11 MB
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