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[समराइच्चकहा
नवववयणं पिव तिलयउज्जलं असोयपल्लवकयावयंसयं च, माहवपणइणीसरीरं पिव दोहियाकमलोवसोहियं भमंतमुहलालिउलजालपरिगयं च, रिद्धिमंतं पिव सच्छायं सउणजणसेवियं च, नवजोव्वणं पिव उम्मायजणणं विलोहणिज्जं च, कामिणी ओहरजुयलं विय परिमंडलं चंदणपंडुरं च, वासहरं पिव अणंगपणइणोए, संगमो विय उउलच्छोणं, कारणं पिव आणंदभावस्स, सहोयरं पिव सुरलोयवेसाणं। तं च दठूण अब्भहियजायहरिसो ओइण्णो करिवराओ पविट्ठो अमरनंदणं । पवत्तो कीलिउ' विचित्तकोलाहिं । परिणओ वासरो। पविट्ठो नार । एवं च अइवता कइवि दियहा।।
__ अन्नया य नियभवणगयस्स चेव गयणयलमज्झसंटिए दिणयरम्म विरलीहूए परियणे नियनियनिओयवावडेसु निओयपुरिसेसु समागया तावसवेसधारिणो गहियनलियापओगखग्गा विसेणकुमारसंतिया चत्तारि महाभयंग त्ति' । विट्ठा सेण कुमारेण । मणियं च ण 'भो पविसह' त्ति। पविट्ठा एए। भूमिभागम् , नववधूवदनमिव तिलकोज्ज्वलम शोकपल्लवकृतावतंसकं च, माधवप्रणयिनीशरीरमिव दीपिकाकमलोपशोभितं भ्रमन्मुखरालिकल ना परिगतं च, ऋद्धिमदिवसच्छायं शकुन(सगुण)जनसेवितं च, नवयौवन मिवोन्मादज-न विलोभनीयं स, कामिनीपयोधरयुगल मिव परिमण्डलं चन्दनपाण्डुरं च, वासगृहमिवान ङ्गप्रणयिन्याः संगम इव ऋतुलक्ष्मीनासङ्गम्, कारणमिवानन्दभावस्य, सहोदरमिव सुरलोकदेशानाम् । तच्च दृष्ट्वाऽभ्यधिकजातहर्षोऽवतीर्णः करिवगत् प्रविष्टोऽ मरनन्दनम् । प्रवृत्तः क्रीडितुं विचित्रक्रीडाभिः । परिणतो वासरः। प्रविष्टो नगरीम् । एवं चातिक्रान्ताः कत्यपि दिवसाः।
___ अन्यदा च निजभवनगतस्यैव गगनतलमध्यसंस्थिते दिनकरे विरलीभूते परिजने निजनिज नियोगव्याप्तेषु नियोग गि)पुरुषेषु समागताः तापसवेषधारिणो गृहीतनलिकाप्रयोगखड्गा विषेणकुमारसत्काश्चत्वारो महाभुजङ्गा इति । दृष्टा: सेनकुपारेण । भणितं च तेन 'भोः प्रविशत' इति । मुख जिस प्रकार तिलक से उज्ज्वल होता है उसी प्रकार वह तिलक से उज्ज्वल था। अशोक के कोमल पत्तों से (उस वनरूपी नववधू ) का कर्णकुण्डल बन रहा था, माधव (विष्णु) की प्रणयिनी का शरीर जिस प्रकार कमला (लक्ष्मी) से शोभित होता है, उसी प्रकार उस वन की बावड़ियाँ कमलों से सुशोभित थीं। घूम-घूमकर शब्द करते हुए भौंरों के समूह से वह घिरा हुआ था। ऋद्धिमान् के समान कान्तिवाले (सउण) गुणयुक्त व्यक्तियों के समान वह पक्षियों (सउण) से शोभित था । नव यौवन जिस प्रकार उन्मादजनक और विलोभनीय होता है उसी प्रकार वह विलोभनीय था। स्त्रियों के स्तन जैसे गोल-गोल और चन्दन (के लेप) से पीले-पीले होते हैं उसी प्रकार वह वन भी चारों ओर बिस्त तथा चन्दन वृक्षों से पीला-पीला था। काम की प्रेमी स्त्रियों के लिए वह वासगृह (शयनगृह) के समान था। ऋतुलक्ष्मी का मानो वह संगम था। आनन्दभाव का मानो कारण था । स्वर्ग के स्थलों का तो वह वन मानो सहोदर था। उसे देख कर जिसे अत्यधिक हर्ष हुआ है ऐसा कुमार सेन श्रेष्ठ हाथी से उतरा और अमरनन्दन उद्यान में प्रविष्ट हुआ। अनेक प्रकार की क्रीडाओं से वह क्रीडा करने में प्रवृत्त हुआ। दिन ढल गया । (कुमार सेन) नगरी में प्रविष्ट हुआ । इस प्रकार कुछ दिन बीत गये ।
एक बार जब कुमार सेन अपने ही भवन में था, सूर्य जब आकाश के मध्य में आ गया था, परिजन विरल हो गये थे तथा नियुक्त पुरुष अपने-अपने कार्यों में लग गये थे तब विषेण कुमार के साथ म्यान (पद्मदण्ड) में तलवार लिये हुए तापसवेषधारी चार बड़े गुण्डे (वहाँ) प्रविष्ट हुए । सेन कुमार ने (उन्हें) देखा और उसने कहा
१. कोलियो चित्तकोलाहि-क । २. पडिहारिया पडिहारेण पविट्ठा कुपाराणनाथा --'
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