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________________ सत्तमो भवो] नारदेण - हरे गेण्हह लहु दुवारणं कयत्यिओ णेणं लोओ ति। तओ गहणसुओ वि नरवइअगाएसभोरू आएससमणंतरमेव पुलोइज्जमाणो भयविन्भमाहियविभूसियाहि पुरसुंदरोहिं धाविओ सेणकुमारो। सीहकि पोरओ विय दिट्ठो मत्तवारणेणं । तं च दळूण अचितणीययाए पुरिससामत्थस्स विपलिओ से नओ। निरुद्धमगेण गमणं । चित्तगओ विय ठिओ पयइभावे । अहो कुमारस्स सामत्थं ति विम्हिया नायरया, हरिसियाओ पुरसंदरोओ, परितुट्ठो मरवई । एत्थंतरम्मि सिक्खाइसयकोविओ विज्जाहरकुमारओ विय नहगमगेणं समारूढो मतवारणं, निबद्धं आसणं, गहिलो वारुअंकुसो, अप्फालिओ कुंनभाए, गुलगुलियमणेणं । 'जयइ कुमारो' त्ति समुद्धाइओ कलयलो, पाहयाई तुराई, नीओ आलाणखभं । एयवइयरेण दूनिओ विशेगो। चितियं च णेणं । न चएमि ईइसे इमस्स संतिए अणक्खे सोउं पि किमंग पुग पेच्छिउं। ताज होउ, तं होउ। समारंभेमि महासाहसं । वावाएमि सयमेव एवं ति। अन्नया य संतिमईसमेयम्मि उज्जाणसंठिए कुमारे परिणयप्पाए वासरे कसाओदएणमणालो. इदं चैवावगत्य जल्पितं नरेन्द्रेण - 'अरे गृहाण लघु दुष्टवारणम् , कथितस्तेन लोक'इति । ततो ग्रहणोत्सुकोऽपि नरपत्यनादेशभीरुरादेशसमन्तरमेव प्रलोक्यमानो भयविभ्रमाधिकविभूषिताभिः परसुन्दरीभिर्धावितः सेनकुमारः । सिंहकिशोरक इव दृष्टो मत्तवारणेन । तं च दृष्ट्वाऽचिन्तनीयतया पुरुषसामर्थ्यस्य विचलितस्तस्य मदः । निरुद्धमनेन गमनम् । चित्रगत इव स्थितः प्रकृतिभावे । अहो कुमारस्य सामर्थ्य मिति विस्मिता नागरकाः, हषिताः पुरसुन्दर्यः, परितुष्टो नरपतिः। अत्रान्तरे शिक्षातिशयकोविदो विद्याधरकमार इव नभोगमनेन समारूढो मत्तवारणम, निबद्धमासनम, गहीतः शीघ्राऽङ कुशः, आस्फालितः कुम्भ भागे, गुलुगुलितं (गजितं) अनेन । 'जयति कुमारः' इति समुद्धावितः कलकलः, आहतानि तूर्याणि, नीत आलानस्तम्भम् । एतद्वयतिकरेण दूनो विषेणः । चिन्तितं च तेन-न शक्नोमीदृशान् अस्य सत्कानि यशांसि (?) श्रोतुमपि, किमङ्ग पुनः प्रेक्षितुम् । ततो यद् भवतु तद् भवतु । समारम्भे महासाहसम् । व्यापादयामि स्वयमेव एतमिति ।। ___ अन्यदा च शान्तिमतीसमेते उद्यानसंस्थिते कुमारे परिणतप्राये वासरे कषायोदयेनानालोच्य तिरस्कार किया है।' अनन्तर पकड़ने को उत्सुक होने पर भी राजा का आदेश न होने से डरनेवाला कुमार सेन राजा के आदेश के तुरन्त बाद ही भय के विभ्रम से अधिक विभूषित नगरसुन्दरियों के द्वारा देखा जाता हुआ दौड़ा । सिंह-शावक के समान इसे हाथी ने देखा । उसे (सेन कुमार को) देखकर पुरुष के सामर्थ्य की अचिन्तनीयता के कारण उस (हाथी) का मद दूर हो गया। उसने गमन रोक दिया और चित्रलिखित के समान स्वाभाविक रूप में ही खड़ा हो गया। 'ओह कुमार का सामर्थ्य !' इस प्रकार नागरिक विस्मित हुए, नगरसुन्दरियाँ हर्षित हुई। राजा सन्तुष्ट हुआ। इसी बीच शिक्षा-अतिशय के ज्ञाता विद्याधर कुमार के समान आकाश गमन से (कुमार सेन) मतवाले हाथी पर सवार हुआ, आसन जमाया, शीघ्र ही अंकुश लिया. गण्डस्थल को दबाया। इसने (हाथी ने) गर्जना की। 'कुमार की जय हो'-ऐसा कोलाहल उठा, बाजे बजाये गये, हाथी को बाँधने के खम्भे तक लाया गया । इस घटना से विषेण दुःखी हआ और उसने सोचा-इसके इस प्रकार के यगों को सुन भी नही सकता हूं, देखने की तो बात ही क्या है । अतः जो हो सो हो, महान पराक्रम आरम्भ करता हूँ । इसे स्वयं ही मारता हूँ। एक बार शान्तिमती के साथ जब कुमार उद्यान में था और दिन प्रायः ढल रहा था, तब कषाय के Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001882
Book TitleSamraicch Kaha Part 2
Original Sutra AuthorHaribhadrasuri
AuthorRameshchandra Jain
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1996
Total Pages450
LanguagePrakrit, Sanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Story, & literature
File Size11 MB
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