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[समराइचकहा
चिऊण परिणइं अगवेक्खिऊण नियमबले अचितिऊण कुमारसत्ति कुमारवावायणनिमित्तमेव कहवय. पुरिसपरिवारिओ गओ तमुज्जाणं। कुमारचित्तवित्तीए अपडिहारिओ चेव पंविट्ठों चंदणलयाहरय । दिदो य ण केवलो चेव कुमारो संतिमई य । वीसत्थो त्ति कढियं मंडलग्गं । दिळं संतिमईए भणियं चणाए अज्जउत्त, परित्तायहि परित्तायहि । तओ 'किमेयं ति उढिओ कुमारी। दिट्ठो य णेण विसेणो। छूढं तेणोहरणं । सिक्खाइसएण वंचियं कुमारेणं, 'किमयं ति चिंतासुम्नहियएणावि भुये रुभिऊण अव हडं से खग्गं । भणिओ य एसो 'कुमार, किमेयं' ति। तओ निरंभमाणेण कढ़िया छुरिया। दरविइण्णे पहारे बाहं वालिऊण अवहडा य णेणं । बाहवलणपीडाए निवडिओ विरुणो। उद्याविओ जेणं, निवेसिओ सयणिज्जे, पुरिछओ संभमेणं 'कमार किमयं ति । तओ अदाऊण उत्तरं निग्गओ चंदणलयाहराओ। भणियं च संतिमईए-अज्जउत, किमयं ति । कुमारेणं भणियं-- सुंदरि, अहं पि न मुणेमि। एत्तिएण पुण एत्थ होयत्वं रज्जमुद्दिसिऊण पयारिओ केणइ कुमारो ति। ता अलं मे इहथिएणं जत्थ पहाणसयणरस कुमारस: वि ईइसो उन्वेवो। अवत्थाणे य अवस्समेव केणइ परिणतिमनवेक्ष्य निजवलमचिन्तयित्वा कुमारशक्ति कुमारव्यापादननिमित्तमेव कतिपयपरुषपरिवतो गतस्तमुद्यानम् । कुमारचित्रवेत्र्या(प्रतीहार्या) अप्रतिहारित (अनवरुद्धः) एव प्रविष्टश्चन्दनलतागृहम् । दृष्टश्च तेन केवल एव कुमारः शान्तिमती च । विश्वस्त इति कृष्टं मण्डलाग्रम् । दष्टं शान्तिमत्या। भणितं च तया आर्यपुत्र ! परित्रायस्व, परित्रायस्व । ततः 'किमेतद' इत्युत्थितः कमारः । दृष्टस्तेन विषेणः । क्षिप्तं तेन शस्त्रम् । शिक्षातिशयेन वञ्चितं कुमारेण । 'किमेतद' इति चिन्ताशून्यहृदयेनापि भुजं रुद्ध्वाऽपहृतं तस्य खङ्गम् । भणितश्चैष: 'कुमार ! किमेतद्' इति । ततो निरुध्यमानेन कृष्टा रिका । दरवितीर्णे (ईषद्दत्ते) प्रहारे बाहुं वालयित्वा अपहृता च तेन । बाहवलनपीडया निपतितो विषेणः । उत्थापितोऽनेन, निवेशितः शयनीये, पृष्ट: सम्भ्रमेण 'कमार ! किमेतद' इति । ततोऽदत्त्वोत्तरं निर्गतश्चन्दनलतागृहात । भणितं च शान्तिमत्या- आर्यपत्र ! किमेतदिति । कुमारेण भणितम्-सुन्दरि ! अहमपि न जानामि । एतावता पुनरत्र भवितव्यम् , राज्य मुद्दिश्य प्रसारित: केनचित्कुमार इति । ततोऽलं मे इह स्थितेन, यत्र प्रधानस्वजनस्य कुमारउदय से फल का विचार न कर, अपनी शक्ति को न देखकर, कुमार की शक्ति का विचार न कर, कुमार को मारने के लिए ही कुछ पुरुषों के साथ (कुमार विषेण) उस उद्यान में गया। चित्रवेत्री (प्रतीहारी) के द्वारा न रोके जाने पर कुमार चन्दनलतागृह में बेरोक-टोक प्रवेश कर गया । उसने केवल कुमार और शान्तिमती को देखा । विश्वस्त होकर तलवार खींची। शान्तिमती ने देख लिया। उसने कहा'आर्यपुत्र ! रक्षा करो, रक्षा करो।' अनन्तर यह क्या !-ऐसा कहकर कुमार उठ गया। उसने विषेण को देखा । विषेण ने शस्त्र चलाया। शिक्षा के अतिशय से कूमार ने उसे रोक लिया। 'यह क्या !'--इस प्रकार चिन्ताशून्य हृदयवाला होते हुए भी भुजा रोककर उसकी तलवार छीन ली। इससे कहा---'कुमार ! यह क्या है ?' अनन्तर रोके जाने पर भी विषेण ने छुरी छीन ली। (तब) कुछ प्रहार कर (तथा) बाहु को मोड़कर सेन ने उसे भी छीन लिया। बाहु के मुड़ने की पीड़ा से विषेण गिर गया। सेन ने (उसे) उठाया, शय्या पर रखा, घबराकर पूछा---'कुमार! यह क्या है ?' अनन्तर उत्तर न देकर विषेण चन्दन लतागृह से निकल गया । शान्तिमती ने कहा -'आर्यपुत्र ! यह सब क्या है ?' कुमार ने कहा-'सुन्दरि ! मैं भी नहीं जानता हूँ। यहाँ इतनी ही बात होना चाहिए कि राज्य को उद्देश्य कर किसी के द्वारा कुमार ठगा गया है। अतः मेरा यहाँ रहना व्यर्थ है, जहाँ पर कि प्रधान स्वजन कुमार को भी इस प्रकार उद्वेग होता है । (मेरे यहाँ) ठहरने पर
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