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________________ सत्तमो भवो ] ६०७ तओ बहवोलियाए रयणीए थाणयनिविद्वा तुरियतुरियमागया सबरपुरिसा । भणिओहि पल्लीवईसामि, परो मरइ, परो मरई त्ति । तओ उदिओ एसो, चडावियं धणवर, निबद्धा नाहला । पुच्छिया य एए - हरे किमेयंति । तेहि भणियं- सामि, न निस्संसयं वियाणामो। एत्तियं पुण तक्केमो, 'महंतो सत्यो पविट्ठो' त्ति अवगच्छिय अवस्समेत्य नीसरइ द्रोणीओ पल्लीवइ त्ति संपहारिऊण वीसउरसामिणा धाडी पेसिय त्ति, जओ समागयं साहणं । पल्लिणाहेण भणियं-अहो न साहियं सामिज्ज ति । अविसाई वि विहुरेसु विसणं मे चित्तं । अहवा न एस कालो विसायस्स। एह तत्थेव गच्छामो; मा इह सामिसत्थपीडा भविस्सइ । साहिओ एस वइयरो साणुदेवस्स । भणिओ य एसो - कुमारे अप्पमत्तण होयध्वं । कज्जगरुययाए पडिस्सुयमणेण । तओ दूरओ चेव पणमिऊण कुमारं पयट्टो पल्लीवई। सुओ एस वइयरो कुमारेण । चितियं च णेणं-अहो महाणुभावया पल्लिणाहस्स। पडिवन्नभिच्चभावो य एसो। ता जइवि अजुत्तयारी तहावि न जुत्तमेयम्मि पयट्टे उयासीणयं भाविउंति। उदिओ कुमारो, गहियं खग्गरयणं, करम्मि घेत्तूण भणिओ साणुदेवो। सत्थवाहपुत्त, न मे पणयभंगो कायव्वो ततो नातिदूरे पल्लीपतिश्च । ततो बहुव्यतिक्रान्तायां रजन्यां स्थानकनिविष्टास्त्वरितत्वरितमागताः शबरपुरुषाः । भणितस्तैः पल्लीपतिः-स्वामिन् ! परो म्रियते परो म्रियते इति । तत उत्थित एषः, आरोपितं धनुर्वरम्, निबद्धा नाहला (इषुधिः ?) । पृष्टाश्चैते--अरे किमेतदिति । तैर्भणितम्स्वामिन् ! न निःसंशयं विजानीमः । एतावत् पुनः तर्कयामः 'महान् सार्थः प्रविष्टः' इत्यवगत्यावश्यमत्र निःसरति द्रोणीतः पल्लीपतिरिति सम्प्रधार्य विश्वपुरस्वामिना धाटिः प्रेषितेति, यतः समागतं साधनम् । पल्लीनाथेन भणितम्-अहो न साधितं स्वामिकार्यमिति । अविषाद्यपि विधुरेषु विषण्णं मे चित्तम्। अथवा नैष कालो विषादस्य । एत तत्रैव गच्छामः, मेह स्वामिसार्थपीडा भविष्यति । कथित एष व्यतिकर: सानुदेवस्य । भणितश्चैषः-कुमारेऽप्रमत्तेन भवितव्यम् । कार्यगुरुकतया प्रतिश्रुतमनेन। ततो दूरत एव प्रणम्य कुमारं प्रवृत्त: पल्लीपतिः । श्रुत एष व्यतिकर: कुमारेण । चिन्तितं च तेन -अहो महानुभावता पल्लीनाथस्य । प्रतिपन्नभृत्यभावश्चैषः । ततो यद्यपि अयुक्तकारी, तथापि न युक्तमेतस्मिन् प्रवृत्ते उदासीनतां भावयितुमिति । उत्थितः कुमारः, गृहीतं खड्गपड़ गया । उसी के समीप भिल्लराज भी पड़ गया। अनन्तर जब रात्रि बहुत अधिक बीत गयी तो नगर (स्थानक) में नियुक्त शबरपुरुष जल्दी-जल्दी आये। उन्होंने भिल्ल राज से कहा-- 'स्वामी ! शत्रु मर रहा है, शत्रु मर रहा है।' तब यह उठ खड़ा हुआ, धनुष चढ़ाया, शरसन्धान किया और इन लोगों से पूछा-'अरे यह क्या? उन्होंने कहा --'स्वामी, ठीक से नहीं जान पा रहे हैं। यह अनुमान करते हैं कि बहुत बड़ी टोली प्रविष्ट हुई है--- यह जानकर अवश्य यहां द्रोणी (दो पर्वतों के बीच के नगर) से भिल्लराज निकल रहा है। अतः निश्चय ही विश्वपुर के स्वामी ने सेना भेजी है; क्योंकि सेना आ गयी है। भिल्लराज ने कहा-- ओह ! स्वामी के कार्य को नहीं साधा; विधुर के विषादी न होने पर भी मेरा चित्त खिन्न है। अथवा यह समय विषाद (करने) का नहीं है । यहाँ से वहीं जायेंगे, इस स्वामी की टोली को पीड़ा न हो। यह घटना सानुदेव से कही। और इससे कहा---'कुमार के विषय में अप्रमादी होना अर्थात प्रमाद मत करना, तत्पर रहना।' कार्य के भारी होने के कारण इसने स्वीकार किया। अनन्तर दूर से ही कुमार को प्रणाम कर भिल्ल राज चल दिया। इस घटना को कुमार ने सुना । उसने विचार किया-ओह भिल्लराज की महानुभावता, यह मृत्यपने को प्राप्त हुआ है। यद्यपि यह अयुक्तकारी है तो भी इसके विषय में उदासीन रहना ठीक नहीं है। कुमार उठा, खड्गरत्न को ग्रहण किया। हाथ में लेकर सानुदेव से १. सरइ-४ । २. धणुहूं-क। ३. निपुच्छा-क, निविट्ठा-ख । ४, दरविउद्धेण - इत्यधिकः पाठः क-पुस्तके । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001882
Book TitleSamraicch Kaha Part 2
Original Sutra AuthorHaribhadrasuri
AuthorRameshchandra Jain
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1996
Total Pages450
LanguagePrakrit, Sanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Story, & literature
File Size11 MB
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