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[ समराइच्चकहा
द्वियनिद्धतिलयभूसियं निडालं, सिहिकिंडकुडिला सिरोरुहा। ता एवंविहेहि लक्खणेहि न नारी वेहव्वदुक्खमणुहवइ, पुत्तभाइणी य होइ त्ति। ता एहि वच्छे, कुलवइं वंदसु ति। तओ 'जं भयवं आणवेइ' त्ति भणिऊण गया तवोवणं । वंदिओ कुलवई, अहिणंदिया य ण । साहिओ वइयरो मुणिकुमारएणं । समासासिया कुलवइणा, भणिया य णेणं-वच्छे, न संतप्पियन्वं । नाणओ अवगच्छामि, थेवदियहेहि चेव एत्थं तवोवणे भविस्सइ ते समागमो पिययमेणं ति । तओ 'अन्नहा रिसिवयणं' ति पडिम्सुयमिमीए । समप्पिया तावसीणं कुलवइणा'।
इओ य अन्नेसमाणाणं सबरपुरिसपल्लिणाहकुमाराणं अइक्कंतो वासरो। 'न दिट्टा देवि' त्ति विसण्णा एए, मिलिया एगओ, समागया सत्थं । भणियं पल्लिणाहेणं-देव, न कायव्वो विसाओ, अवस्समेव जुज्जइ देवो देवीए । कस्स वा विसमदसाविभागो न होइ। ता परिसंथवेउ देवो परियणं, 'कालसज्झं चिमं पओयणं' ति करेउ सयलपरियणसाहारणं पाणवित्ति। तओ 'जत्तमेयं' ति चितिऊण परियणाणुरोहेणं कया पाणवित्ती । अत्थुयं सयणिज्ज, णुवण्णो एसो तओ नाइदूरम्मि पल्लीवई य । गुलिकासदृशे लोचने, सुप्रतिष्ठितस्निग्धतिलकभूषितं ललाटम्, श्लक्ष्णकृष्णकुटिला: शिरोरुहाः । तत एवंविधैर्लक्षणैर्न नारी वैधव्य दुःखमनुभवति, पुत्रभागिनी च भवतीति । तत एहि वत्से ! कुलपति वन्दस्वेति । ततो 'यद् भगवान् आज्ञापयति' इति भणित्वा गता तपोवनम् । वन्दित: कुलपतिः, अभिनन्दिता च तेन। कथितो व्यतिकरो मुनिकुमारकेन । समाश्वासिता कुलपतिना, भणिताच तेन-वत्से ! न सन्तप्तव्यम् । ज्ञानतोऽवगच्छामि, स्तोकदिवसैरेवात्र तपोवने भविष्यति ते समागमः प्रियतमेनेति । ततो 'नान्यथा ऋषिवचनम्' इति प्रतिश्रुतमनया। समर्पिता तापसीनां कलपतिना।
इतश्चान्वेषमाणानां शबरपुरुषपल्लीनाथकमाराणामतिक्रान्तो वासरः । 'न दृष्टा देवी' इति विषण्णा एते, मिलिता एकतः, समागताः सार्थम् । भणितं पल्लीनाथेन-देव ! न कर्तव्यो विषाद:, अवश्यमेव युज्यते देवो देव्या। कस्य वा विषमदशाविभागो न भवति । ततः परिसंस्थापयतु देवः परिजनम्, 'कालसाध्यं चेदं प्रयोजनम्' इति करोतु सकलपरिजनसाधारणां प्राणवृत्तिम् । ततो 'युक्तमेतद्' इति चिन्तयित्वा परिजनानुरोधेन कृता प्राणवृत्तिः । आस्तृतं शयनीयम्. निपन्न एषः, ऐसे दोनों हाथ हैं, सम्पूर्णकलाओं से युक्त चन्द्रमण्डल के समान मुखकमल है, मधु की गोली के समान नेत्र हैं, सुप्रतिष्ठित सुन्दरतिलक से भूषित मस्तक है, चिकने, काले और धुंघराले बाल हैं। इस प्रकार लक्षणों वाली स्त्री वैधव्य के दुःख का अनुभव नहीं करती है और पुत्रवती होती है, अतः आओ वत्से ! कुलपति की वन्दना करो।' अनन्तर 'भगवान् की जैसी आज्ञा'- ऐसा कहकर (वह) तपोवन में गयी । कुलपति की वन्दना की । कुलपति ने अभिनन्दन किया । मुनिकुमार ने घटना बतायी। कुलपति ने धैर्य बंधाया और कहा---'वत्से ! दुःखी मत होओ। ज्ञान से जानता हूँ कि थोड़े ही दिनों में इसी तपोवन में तेरा प्रियतम से समागम होगा।' तब-'ऋषि के वचन अन्यथा नहीं होते'-ऐसा सोचकर इसने स्वीकार किया। कुलपति ने इसे तापसियों को सौंप दिया।
__ इधर शबरपुरुष, भिल्लराज और कुमार का ढूंढ़ते हुए दिन बीत गया। देवी दिखाई नहीं दी, अत: ये दुःखी हो गये, एक स्थान पर मिले, व्यापारियों की टोली के पास आये । भिल्लराज ने कहा-'महाराज ! विषाद न करें, महाराज का देवी से अवश्य मिलन होगा । अथवा विषम अवस्था का विभाग किसका नहीं होता है ? अतः महाराज परिजनों को निर्देश दें। यह प्रयोजन समय पर सिद्ध होगा, अतः समस्त लोगों के लिए साधारण आहार ग्रहण करें।' अनन्तर, ठीक है-ऐसा सोचकर परिजनों के अनुरोध से आहार किया। शय्या बिछायी गयी, यह
१. पडिजागरणीया एसा । ज भयवं अणवेइति भणिऊण णीया णिययमासनं । इत्यधिकः पाठ; क-पुस्तकप्रान्ते ।
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