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________________ सत्तमो भवो] ६०५ लाघवं । आवया खु एसा, देवयाकप्पो य भयवं ति । चितिऊण जंपियमिमीए- भयवं, रायउरसामिणो संखरायस्स धूया अहं, सत्थभंगविन्भमेण एगागिणी, अज्जउत्तो न दीसइ त्ति इमस्स दवसायस्स कारणं ति भणिऊण रोविउं पयत्ता। भणिया य ण-अज्जे, मा रुय । ईइसो एस संसारो, विचित्तयाए कम्मपरिणामस्स अणुगरेइ नडपेडयं । खणेण विओगो, तेणेव संगमो; खणेण सोगो, तेणेव पमोओ; खणेण आवया, तेणेव संपय त्ति। एवंविहे य एयम्मि बुद्धिमंतेण सत्तेण आवडिए वि विसमदसाविभाए न सेवियव्वो विसाओ, न कायध्वमणुचियं, न मोत्तव्वं सत्तं, न उज्झियम्वो उच्छाहो । एवं च वटमाणो सत्तो पुरिसयारजेयं कम्मं खविऊणं लंघेइ आवयं। ता अज्जे मंच विसायं। पुणो विय करुणापवन्नचित्तेण 'कालोचियमिणं' ति विसेसओ निरूविऊण भणियं मुणिकुमारएणं । अन्नं च। लक्खणओ अवगच्छामि, न विवन्नो ते भत्ता, जओ सुहफलोदओ आभोगो, कणगावदाया देहच्छवी, परहुयालवियमणहरो सद्दो, सुपइडिया चलणा, वियर्ड नियंबफलयं, दाहिणावत्तसंगया नाही, अमिलाणकंतिसोहा करा, संपुण्णकलामियो व्व परिमंडलं वयणकमलं, महुगुलियासरिसाई लोयणाई, सुपइनोऽपि लाघवम् । आपद् खल्वेषा, देवताकल्पश्च भगवानिति । चिन्तयित्वा जल्पितमनया-भगवन ! राजपुरस्वामिनः शङ्खराजस्य दुहिताऽहम, सार्थभङ्गविभ्रमेणैकाकिनी, आर्य पुत्रो न दृश्यते इत्यस्य व्यवसायस्य कारणमिति भणित्वा रोदितुं प्रवृत्ता। भणिता च तेन-आर्य ! मा रुदिहि । ईदश एष संसारः, विचित्रतया कर्मपरिणामस्यानुकरोति नटपेटकम् । क्षणेन वियोगः, तेनैव सङ्गमः, क्षणेन शोकः, तेनैव प्रमोदः, क्षणेनापद, तेनैव सम्पदिति । एवंविधे चैतस्मिन् बुद्धिर ता सत्त्वेन आपतितेऽपि विषमदशाविभागे न सेवितव्या विषादः, न कर्तव्यमनुचितम्, न मोक्तव्यं सत्त्वम्, न उज्झितव्यं उत्साहः । एवं च वर्तमानः सत्त्वः पुरुषकारजेयं कर्म क्षपयित्वा लङ्घयत्यापदम् । तत आर्ये ! मुञ्च विषादम् । पुनरपि च करुणाप्रपन्नचित्तेन 'कालोचितमिदम्' इति विशेषतो निरूप्य भणितं मनिकुमारकेन । अन्यच्च, लक्षणतोऽवगच्छामि, न विपन्नस्ते भर्ता, यतः शुभफलोदय आभोगः, कनकावदाता देहच्छवि:, परभृतालपितमनोहर: शब्द:, सुप्रतिष्ठितो चरणौ, विकटं नितम्बफलकम, दक्षिणावर्तसङ्गता नाभिः, अम्लानकान्तिशोभौ करौ, सम्पूर्णकलामृगाङ्क इव परिमण्डलं वदनकमलम, मधहैं - ऐसा सोचकर यह बोली-'भगवन् ! मैं रामपुर के स्वामी की पुत्री हूँ, व्यापारियों की टोली के छिन्न-भिन्न हो जाने के विभ्रम से अकेली हो गयी, आर्यपुत्र नहीं दिखाई दे रहे हैं, यह इस निश्चय का कारण है'-ऐसा कहकर रोने लगी । मुनिकुमार ने कहा-'मत रओ। यह संसार ही ऐसा है । यह संसार कर्म के परिणामों की विचित्रता से नट की पेटी का अनुसरण करता है। क्षण में वियोग होता है, क्षण में संयोग होता है, क्षण में शोक होता है, क्षण में हर्ष होता है, क्षण में आपत्ति आती है, क्षण में सम्पत्ति प्राप्त होती है। इसके इस प्रकार होने पर बुद्धिमान प्राणी को विषमदशा का विभाग आने पर विषाद का सेवन नहीं करना चाहिए (विषाद नहीं करना चाहिए), अनुचित कार्य नहीं करना चाहिए, शवित नहीं छोडनी चाहिए, उत्साह का त्याग नहीं करना चाहिए। इस प्रकार की अवस्था वाला प्राणी पूरुषार्थ के द्वारा जीतने योग्य कर्म का नाश कर भापत्ति को लाँघ जाता है। अतः आर्ये ! विषाद छीड़ो। पुनः करुणायुक्त चित्त होकर 'यह समयोचित है'- इस प्रकार विशेष विचार कर मुनिकुमार ने कहा--'दूसरी बात यह है कि लक्षण से जानता हूं कि तुम्हारे पति की मृत्यु नहीं हुई है। क्योंकि शुभ फल के उदय वाला विस्तार है, स्वर्ण के समान उज्ज्वल देहकान्ति है, कोयल की आवाज-जैसे शब्द हैं, सुप्रतिष्ठित चरण हैं, विकट नितम्ब भाग है, दक्षिणावर्त से युक्त नाभि है, जिनकी कान्ति और शोभा म्लान नहीं हुई १. संतो-क। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001882
Book TitleSamraicch Kaha Part 2
Original Sutra AuthorHaribhadrasuri
AuthorRameshchandra Jain
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1996
Total Pages450
LanguagePrakrit, Sanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Story, & literature
File Size11 MB
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