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________________ छट्ठो भवो ] ४८५ बासरो, एहि अवावाइए मा रयणीए पमाओ भविस्सइ । मोरियएण भणियं-जं तुम भणसि त्ति समप्पिओ मोरियस्स पच्चभिन्नाओ' य जेणं । 'कहं सो चेव एसो जीवियदायओ मे सत्थवाहपुत्तो; अहो कद्र, इमस्स वि ईइसी अवत्थ' त्ति चितिऊण विसण्णो मोरियओ। चितियं च जेणं । अहवा पावेंति चंददिवायरा वि महुत्तमेत्तं गहकल्लोलामो आवई। बहुमओ य मे सामिसालसमाएसो एयस्स दंसणेणं । ता नेमि ताव एवं मसाणभूमि । जाणामि य इमाओ जहटियं वुत्तंतं । नीओ ससाणभमि, छोडिया बंधा, चलणेसु निवडिऊणं पुच्छिओ य जेणं। अज्ज, अवि सुमरेसि मं आयामहीए विमोइयं । धरणेग भणियं -- भद्द, न सूटठ सुमरेमि । मोरियएण भणियं-कहं न सुमरेसि, जो भवं विय अचोरो चेव 'चोरो'त्ति कलियगहिओ अहं महया दविणजारण पेच्छिऊण नरवइं तर विमोइओ त्ति। धरणेण भणियं-भद्द, थेवमेयं मोरिएण। भणियं, ता साहेउ अज्जो, कहं पुण अज्जस्स ईइसी अवस्थ त्ति। धरणेण भणियं-भद्द, देव्वं एत्थ पुच्छसु त्ति। मोरिएण चिन्तियं, न एत्थ कालक्खेवेण पओयणं, अहिमाणी य एसो कहं कहइस्सइ। किं वा कहिएणं । विचित्ताणि इदानीमव्यापादिते मा रजन्यां प्रमादो भविष्यति । मौर्येण भणितम्-यत्त्वं भणसीति । समर्पितो मौर्यस्य प्रत्यभिज्ञातश्च तेन । कथं स एवैष जीवितदायको मे सार्थवाहपुत्रः, अहो कष्टम् , अस्यापीदशी अवस्थेति चिन्तयित्वा विषप्णो मौर्यः । चिन्तितं च तेन- अथवा प्राप्नुतश्चन्द्रदिवाकरावपि मुहूर्तमात्रं ग्रहकल्लोलाद् (राहोः) आपदम् । बहुमतश्च मे स्वामिसमादेश एतस्य दर्शनेन । ततो नयामि तावदेतं दमशानभूमिम् । जानामि चारमाद् यथास्थितं वत्तान्तम । नीतो श्मशानभमिम, छोटिता बन्धा:. चरणयोनिपत्य पष्टश्चानेन-आर्य ! स्मरसि मामायामुख्यां विमोचितम् ? धरणेन भणितम्- न सुष्ठ स्मरामि । मौर्येण भणितम्कथं न स्मरसि, यो भवानिव अचोर एव 'चोर' इति कलयित्वा गृहीतोऽहं महता द्रविणजातेन प्रेक्ष्य नरपति त्वया विमोचित इति । धरणेन भणितम्-भद्र ! स्तोकमेतद् । मौर्येण भणितम्-तत: कथयत्वार्यः, कथं पुनरार्यस्य ईदशी अवस्थेति । धरणेन भणितम्-भद्र ! दैवमत्र पृच्छेति । मौर्येण चिन्तितम्-नात्र कालक्षेपेन प्रयोजनम्, अभिमानी चैष कथं इस समय न मारे जाने पर रात्रि में प्रमाद न हो । मौर्य ने कहा- जो आप कहें। मौर्य को समर्पित किया गया, उसने पहिचान लिया। क्या मुझे प्राण दिलानेवाला यह वही सार्थवाहपुत्र है ? ओह कष्ट है, इसकी भी ऐसी अवस्था हुई !-ऐसा सोचकर मौर्य दुःखी हुआ। उसने सोचा- अथवा चन्द्र सूर्य भी मुहूर्तमात्र के लिए राहु द्वारा ग्रसे जाकर आपदा को प्राप्त होते हैं । इसका दर्शन (प्राप्त) होने से राजा का आदेश मुझे अधिक मान्य (सिद्ध हुआ) है। अतः इसे श्मशानभूमि में ले जाता हूँ। इससे सही वृत्तान्त ज्ञात करूँगा। श्मशानभूमि में ले गया, बन्धनों को छोड़ा, पैरों में पड़कर इससे पूछा- आर्य ! आयामुखी में जो मुझे आपने छुड़ाया था, उसकी याद है ? धरण ने कहा- ठीक से याद नहीं है। मौर्य ने कहा - कैसे याद नहीं है जो कि आपके ही समान अवोर को चोर- ऐसा मानकर ग्रहण किए गए मुझे आपके ही द्वारा राजा को बहुत धन दिए जाने पर राजा से छुड़वा दिया गया था। धरण ने कहा- यह थोड़ा है (छोटी-सी बात है)। मौर्य ने कहा-आर्य कहें - आर्य की ऐसी अवस्था कैसे हुई ? धरण ने कहा -भद्र ! यहाँ पर भाग्य से पूछो । मौर्य ने विचार किया- यहाँ पर काल के व्यवधान से क्या प्रयोजन ? अभिमानी यह कैसे कहेगा? अथवा कहने से क्या ? विधाता का विलास १. पच्चहिन्नानो-क। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001882
Book TitleSamraicch Kaha Part 2
Original Sutra AuthorHaribhadrasuri
AuthorRameshchandra Jain
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1996
Total Pages450
LanguagePrakrit, Sanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Story, & literature
File Size11 MB
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