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________________ ४८६ समराइच्चकहा विहिणो विलसियाणि । ता कि ममेइणा निबंधेण । अहवा कहियं चेवाणेण परमत्थओ 'देव्वं पुच्छसुत्ति भणमाणेण। ता इमं ताव एत्थ पत्तयालं, जे एसो इओ लहु विसज्जीयइ ति। चितिऊण भणिओ खु एसो। अज्ज, किं बहुणा जंपिएण; मोत्तण विसाय लहुँ अवक्कम। धरणेण भणियं - भद्द, न खलु अहं परपाणेहिं अत्तणो पाणे रक्खेमि। ता वावाएहि मं निद्देसकारी खु तुमं ति। मोरिएण भणयिं-अज्ज, अलं मझ पाणविणाससंकाए । सतपुरिसो खु एस सया, न अम्हाणं अवराहसए वि य पाणवावत्ति करेइ। अगच्छमाणे य अज्जे अवस्समहप्पाणं वावाएमि । ता गच्छउ अज्जो। तओ 'नस्थि अविसओ सज्जणसिहस्स' त्ति चितिऊण जंपियं धरणेणं-भद्द, जइ एवं, ता अवकमामि । मोरिएण भणियं-अणुग्गिहीओ म्हि । दंसिओ से पंथो । पणमिऊगय नियत्तो मोरिओ । मित्तोवरोहेण पलाणो धरणो। चितियं च जेण । अह कहिं पुण सा मुद्धमयलोयणा भविस्सइ । नूणमुखरोहसीलयाए मं अणुटुक्यि : पासवणनिमित्तमुटिया केणावि तक्करेणं समासाइया भवे, नीया य घेणं, मम विणासा संकिणीए न जंपियमिमीए; अन्नहा कहं न दिट्ठ ति। असणेणं च तीसे विहलमेव पाणलाहं • कथयिष्यति, किं वा कथितेन । विचित्राणि विधेविलसितानि । तत: किं ममैतेन निर्बन्धेन । अथवा कथितमेवानेन परमार्थतो 'दैवं पृच्छ' इति भणता। तत इदं तावदत्र प्राप्तकालम, यदेष इतो लघ विसर्च्यते इति। चिन्तयित्वा भणित: खल्वेषः । आर्य ! किं बहुना जल्पितेन, मुक्त्वा विषादं लघ. अपक्राम। धरणेन भणितम्-भद्र ! न खल्वहं परप्राणैरात्मनः प्राणान रक्षामि। ततो व्यापादय माम, निर्देशकारी खलु त्वमिति । मौर्येण भणितम् - आर्य! अलं मम प्राणविनाशशङया। सत्पुरुषः खल्वेष राजा, नास्माकमपराधशतेऽपि च प्राणव्यापत्ति करोति । अगच्छति चार्ये अवश्यमहमात्मानं व्यापादयामि । ततो गच्छत्वार्यः। ततो 'नास्त्यविषयः सज्जनस्नेहस्य' इति चिन्ययित्वा जल्पितं धरणेन । भद्र ! यद्येवं ततोऽपक्रामामि । मौर्येण भणितम्-अनुगहीतोऽस्मि । दर्शितस्तस्य पन्थाः। प्रणम्य च निवृत्तो मौर्यः । मित्रोपरोधेन पलायितो धरणः । चिन्तितं च - तेन-अथ कुत्र पुनः सा मुग्धमृगलोचना भविष्यति, नूनमुपरोधशीलतया मामनुत्थाप्य प्रस्रवणनिमित्तमत्थिता केनापि तस्करेण समासादिता भवेत्, नीता च तेन, मम विनाशाशङ्किन्या न जल्पितमनया, अन्यथा कथं न दृष्टेति । अदर्शनेन च तस्या विफलमेव प्राणलाभं मन्ये इति । विचित्र है, अतः मुझे इस से क्या लाभ ? अथवा इसने सत्य ही कह दिया कि भाग्य से पूछो। अत: अब समय आ गया है कि इसे जल्दी छोड़ा जाय। विचारकर इसने कहा - आर्य ! अधिक कहने से क्या, विषाद को छोड़कर जल्दी भाग जाओ। धरण ने कहा- मैं दूसरों के प्राणों से अपने प्राणों की रक्षा नहीं करता। अत: मुझे मार डालो। तुम तो आज्ञा-पालन करनेवाले हो। मौर्य ने कहा - मेरे प्राणों के विनाश की शङ्का मत करो। यह राजा सत्परुष है. मेरे हजार अपराध करने पर भी मुझे नहीं मारेगा। आर्य नहीं जाएँगे तो अवश्य ही अपने मार डालंगा । अत: आर्य जाएँ। तब (कोई भी पदार्थ) सज्जनों के स्नेह का अविषय नहीं है-ऐसा सोचकर धरण ने कहा -भद्र ! यदि ऐसा है तो भागता हूँ । मौर्य ने कहा - मैं अनुगृहीत हूँ। उसे रास्ता दिखाया। प्रणाम करके मौर्य लौट आया। मित्र के अनुग्रह से धरण भाग गया। उसने सोचा - वह मुग्ध नेत्रोंवाली कहाँ होगी? निश्चित ही अन्तःपुर की शीलता के कारण मुझे उठाए बिना ही पेशाब के लिए उठी हुई उसे किसी चोर ने पकड़ लिया, उसके द्वारा वह ले जाई गयी। मेरे विनाश की आशङ्का से वह चिल्लाई नहीं, अन्यथा वह कैसे दिखाई नहीं देती ? उसके न दिखाई पड़ने पर मेरा प्राण-लाभ करना व्यर्थ है-ऐसा मैं मानता हूँ। ऐसा विचार Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001882
Book TitleSamraicch Kaha Part 2
Original Sutra AuthorHaribhadrasuri
AuthorRameshchandra Jain
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1996
Total Pages450
LanguagePrakrit, Sanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Story, & literature
File Size11 MB
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