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________________ छट्ठो भवो ] मन्नामिति । चितयंतो पयट्टो गवेसिउं । व्हाओ उज्जुवालियाए । ओ सो चंडरुद्दो तओ देवउलाओ अबक्कमिऊण गओ उज्जुवालियं नई । चितियं च पेणं अहो दारुणया इत्थवग्गस्स, जमेसा एगपए चैव महावसणपायालंमि पविखविय भत्तारं अणafraऊण नियकुलं सिविणयंमि वि अदिट्ठपुवेण मए सह पयट्टत्ति । हा हि दूरेण जियं विसवग्धभुयंग सिंघसरहाणं । कलिकाल व हिरक्खसिकयंतचरियं महिलियाह || ५०८ | असलिलपकग्गाही होइ खणेणं श्रकंदरा वग्घी | अणिमत्ता जमभिउडी अणभवज्जासणी महिला || ५०६ ॥ महिला आलकुलघरं महिला लोयंमि दुच्चरियखेत्तं । महिला दुग्गइदारं महिला जोणी अणत्थाणं ॥ ५१० ।। विज्जु व्व चंचलाओ महिलाउ विसं व पमुहमहुराओ । मच्चु व्व तिग्घिणाओ पावं पिव वज्जणिज्जाओ ।। ५११ ।। चिन्तयन् प्रवृत्तो गवेषयितुम् । स्नात ऋजुवालिकायाम् । इतश्च स चण्डरुद्रस्ततो देवकुलादपक्रम्य गत ऋजुवालिकां नदीम् । चिन्तितं च तेन - अहो दारुणता स्त्रीवर्गस्य यदेषा एकपदे एव महाव्यसनपाताले प्रक्षिप्य भर्तारमनपेक्ष्य निजकुलं स्वप्नेऽपि अदृष्टपूर्वेण मया सह प्रवृत्तेति । , Jain Education International हा कथं दूरेण जितं विष व्याघ्र भुजङ्ग - सिंह- शरभानाम् । कलिकालवह्निराक्षसीकृतान्तचरितं महिलाभिः ||५०८ ॥ असलिल पंकग्राही भवति क्षणेनाकन्दरा व्याघ्री । अनिवृत्ता यमभृकुटिरनभ्रवज्राशनिर्महिला ॥ ५० ॥ महिला आल (असद्दोषारोप) कुलगृहं महिला लोके दुश्चरितक्षेत्रम् । महिला दुर्गतिद्वारं महिला योनिरनर्थानाम् ॥५१० ॥ विद्युदिव चंचला महिला विषमिव प्रमुखमधुराः । मृत्युरिव निर्घृणाः पापमिव वर्जनीयाः ॥ ५११ ॥ ४८७ करता हुआ वह उसे खोजने लग गया । ऋजुवालिका (नदी) में स्नान किया । इवर वह चण्डरुद्र मन्दिर से निकलकर ऋजुवालिका नदी को गया । उसने सोचा - अहोः स्त्रीवर्ग की कठोरता, जो यह एक ही स्थान पर महान् संकटरूप पाताल में पति को पटककर अपने कुल की कुछ भी अपेक्षा न कर, जिसे पहले स्वप्न में भी नहीं देखा, ऐसे मेरे साथ प्रविष्ट हुई है ! हाय ! कलियुग की अग्नि, राक्षसी और यमराज के समान आचरण करनेवाली महिलाओं ने किस प्रकार दूर से ही विष, व्याघ्र, भुजङ्ग, सिंह और चीते को जीत लिया है। महिला ( वस्तुतः ) बिना पानी और कीचड़ की ग्राही ( मगर की स्त्री), बिना गुफा के व्याघ्री, यम की न लोटनेवाली भौंह, बिन बादल के वज्र अथवा बिजली होती है । महिला असद्धं षों के आरोप का कुलग्रह है, महिला इस लोक में दुश्चरित्र का क्षेत्र है, महिला दुर्गति का द्वार है, महिला अनर्थों की योनि (उत्पत्ति-स्थान ) है । महिला विद्युत के समान चंचल, विष के समान प्रारम्भ में मधुर लगनेवाली, मृत्यु के समान निर्दयी और पाप के समान छोड़ने योग्य है ॥ ५०८- ५११ ॥ For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001882
Book TitleSamraicch Kaha Part 2
Original Sutra AuthorHaribhadrasuri
AuthorRameshchandra Jain
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1996
Total Pages450
LanguagePrakrit, Sanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Story, & literature
File Size11 MB
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