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________________ ४८८ [समराइच्चकहा ता अलं मे एयाए; मा मज्झं पि इणमेव संपाडइस्सइ ति चितिऊण घेत्तूणमंगलग्गं सुवणयं परिचत्ता खु एसा। __चितियं च तीए । तहावि सोहणं चेव एयं, जं सो वावाइओ ति। ता गच्छामि अन्नत्थ । पयट्टा नईतीतर । दिट्ठा धरेणेण हरिसवसुप्फुल्ललोयणेणं पुच्छिया एसासुन्दरि, कुओ तुम ति। तओ सा रोविउ पयत्ता भणिया य जेणं । सुन्दरि, मा रोव, ईइसो एस संसारो । आवयाभायणं खु एत्थ पाणिणो। ता अलं विसाएण। धन्नो य अहयं, जेण तुमं संपत्त ति। तओ तीए भणियं-अज्ज उत्त, पासवणनिमित्तमुट्ठिया गहिया तवकरेण, इत्थीसहावाओ अज्जउत्तसिणेहाइसएण य न किपि वाहरियं । 'अणिच्छमाणी य इस्थिया न घेप्पड़' त्ति करिय मुसिऊण उझिया इहई। अन्नं च । तक्करकयत्थणाओ वि मे एयं अहिययरं बाहइ, जं तुमं ईइसि अवत्थमुवगओ दिट्टो त्ति । तओ 'न अन्नहा मे वियप्पियं' ति चितिऊण भणियं धरणेणंसुन्दरि, थेवमियं कारणं । न मे उन्वेवकारिणी इयमवत्था तुह दसणेणं । ता कि एइणा। एहि, गच्छम्ह । चितियं च णाए । अहो मे पावपरिणई, जं कयंतमुहाओ वि एस आगओ ति। ततोऽलं मे एतया, मा ममापीदमेव संपादयिष्यति इति' चिन्तयित्वा गृहीत्वाङ्गलग्नं सुवर्ण परित्यक्ता खल्वेषा। चिन्तितं च तया-तथापि शोभनमेवैतत्, यत्स व्यापादित इति । ततो गच्छाम्यन्यत्र । प्रवत्ता नदीतीरे । दृष्टा धरणेन हर्षवशोत्फुल्ललोचनेन। पृष्टैषा-सुन्दरि ! कुतस्त्वमिति । ततः सा रोदितं प्रवृत्ता भणिता च तेन । सुन्दरि ! मा रुदिहि, ईदृश एष संसारः । आपद्भाजनं खल्वत्र प्राणिनः । ततोऽलं विषादेन । धन्यश्चाहं येन त्वं संप्राप्तति । ततस्तया भणितम्आर्यपुत्र ! प्रस्रवणनिमित्तमुत्थिता गृहीता तस्करेण, स्त्रीस्वभावाद् आर्यपुत्रस्नेहातिशयेन च न किमपि व्याहृतम् । 'अनिच्छन्ती च स्त्री न गृह्यते' इति कृत्वा मुषित्वा उज्झितेह । अन्यच्च तस्करकदर्थनाया अपि मे एतदधिकतरं बाधते, यत्त्वमीदृशीमवस्थामुपगतो दृष्ट इति । ततो 'नान्यथा मे विकल्पितम्' इति चिन्तयित्वा भणितं धरणेन । सुन्दरि ! स्तोकमिदं कारणम् । न मे उद्वेगकारिणीयमवस्था तव दर्शनेन । ततः किमेतेन । एहि गच्छावः । चिन्तितं चानया-अहो मे __ अतः मुझे इससे क्या प्रयोजन ? यह मेरा भी ऐसा ही करेगी- ऐसा सोचकर अंगों में धारण किए हुए स्वर्ण को ग्रहणकर इसका उसने परित्याग कर दिया। उसने (लक्ष्मी ने) सोचा-फिर भी यह ठीक हुआ कि उसे (धरण को) मार डाला गया। अब मैं दूसरी जगह जाऊँगी। नदी के किनारे की ओर गयी। धरण ने हर्ष के वश विकसित नेत्रों से देखा। इससे पूछा- तुम कहाँ से? तब वह रोने लगी। उसने कहा-हे सुन्दरी ! मत रोओ। यह संसार ऐसा ही है। यहाँ प्राणियों पर आपत्तियाँ आती ही हैं । अतः विषाद मत करो। मैं धन्य हूँ जो कि तुम मिल गई। तब उसने कहा-आर्यपुत्र ! पेशाब के लिए उठी हुई मुझे चोर ने पकड़ लिया । स्त्रीस्वभाव के कारण आर्यपुत्र के प्रति स्नेह की अधिकता से कुछ नहीं कहा । 'न चाहनेवाली स्त्री ग्रहण नहीं की जाती है' ऐसा मानकर (गहने) चुराकर (चोर ने) यहाँ छोड़ दिया। चोर के अत्याचार से भी अधिक पीड़ा मुझे इस बात की है कि तुम इस अवस्था को प्राप्त दिखाई पड़ रहे हो। 'दूपरा विकल्प नहीं है'- ऐसा सोचकर धरण ने कहा- सुन्दरी ! यह छोटा-सा कारण है। तुम्हारे दर्शन (प्राप्त हो जाने) के कारण मेरी यह अवस्था उद्वेगजनक नहीं है । अतः इससे क्या, आओ चलें । इसने सोचा--अरे मेरे पाप का फल जो कि यह मृत्यु के मुख से भी छूटकर आ गया है। यह Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001882
Book TitleSamraicch Kaha Part 2
Original Sutra AuthorHaribhadrasuri
AuthorRameshchandra Jain
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1996
Total Pages450
LanguagePrakrit, Sanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Story, & literature
File Size11 MB
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