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समराइच्च कहाँ
वि य कयस्थणाओ इमं मे अहियं बाहइ, जं सा तवस्सिणी अदिट्ठबन्धुविरहा न दीसइ । 'अहवा वरं न दिट्ठा चेव । मा सा वि मे संसम्गिकलंकदासिया इमं चेव पाविस्सइ त्ति। चितयंतो नीओ रायउलं । अप्पत्थावो नरिंदस्स त्ति धरिओ रायमगे। अइक्कतो वासरो। अवसरो ति कलिय निवेइओ नरिन्दस्स । देव, सलोत्तओ चेव मायापओयकुसलो वाणिययवेसधारी गहिओ महाभुयंगो। संपयं देवो पमाणं ति । तओ राइणा भणियं-कि तेण, बावाएह ति। नीओ हिं पाणवाडयं । समप्पिओ रायउलकमागयाणं वहनिओगकारीणं पच्चइयपाणाणं। भणिया य एए-हरे, देवो समाइसइ 'एस तक्करो वावाइयव्वो' त्ति । तेहिं भणियं-जं देवो आणवेइ ति। समप्पिऊण तेसि गया डंडवासिया। भणि चंडालमयहरेण । हरे, कस्स वावायणमासवारओ। चंडालेहि भणियं 'मोरियस्स' । तेण भणियं-लहुं सद्दावेह मोरियं । सहाविओ मोरियो, आगओ य । भणिओ मयहरेण । हरे मोरिय, एस तक्करो देवेण पेसिओ वावाइयवो त्ति । ता नेऊण मसाणभूमि लहं वावाएहि । जाममेत्तावसेसो य एतस्य वशवर्तिना न शक्यतेऽन्यथा वर्तितम । अस्या अपि च कदर्थनाया इदं मेऽधिकं बाधते, यत्सा तपस्विनी अदृष्टबन्धुविरहा न दृश्यते । अथवा वरं न दृष्टैव । मा साऽपि मे संसर्गकलङ्कदूषिता इमा (कदर्थनां) एव प्राप्स्यतीति । चिन्तयन् नीतो राजकुलम् । अप्रस्तावो नरेन्द्रस्येति धृतो राजमार्गे। अतिक्रान्तो वासरः । अवसर इति कलित्वा निवेदितो नरेन्द्रस्य । देव ! सलोप्त्रक एव मायाप्रयोगकुशलो वाणिजकवेषधारी गृहीतो महाभुजङ्गः । साम्प्रतं देवः प्रमाणमिति । ततो राज्ञा भणितम् - किं तेन, व्यापादयतेति । नीतस्तैः प्राणवाटकम् (चण्डालवाटकम)। समर्पितो राजकुलक्रमागतानां प्रत्ययितविश्वस्तप्राणानाम् । भणिता चैते। अरे देवः समादिशति 'एष तस्करो व्यापादयितव्यः' इति । तैर्भणितं- यद देव आज्ञापयति इति । समर्प्य तेभ्यो गता दण्डपाशिकाः। भणितं--चण्डालमुख्येन -अरे कस्य व्यापादनमासवारक: ? चण्डालर्भणितं - 'मौर्यस्य'। तेन भणितम्- लघु शब्दाययत मौर्यम् । शब्दायितो मौर्य आगतश्च । भणितो मुख्यचण्डालेन-अरे मौर्य ! एष तस्करो देवेन प्रेषितो व्यापादयितव्य इति । ततो नीत्वा श्मशानभूमि लघु व्यापादय । याममात्रावशेषश्च वासरः,
होने पर अन्य प्रकार का आचरण नहीं किया जा सकता। इससे भी यह अत्याचार मुझे अधिक दुःख देता है कि वह बेचारी, जिसने बन्धुविरह को नहीं देखा है, यहाँ नहीं दिखाई देती है। अथवा उसका न दिखाई देना ही उत्तम है । मेरे संसर्ग के कलङ्क से दूषित वह भी इस अत्याचार को प्राप्त न करे । इस प्रकार विचार करता हुआ वह राजकुल (राजदरबार) की ओर ले जाया गया। राजा को समय नहीं था अतः सड़क पर रखा गया। दिन व्यतीत हो गया । समय आने पर राजा से निवेदन किया गया-देव ! चोरी के माल के साथ ही माया के प्रयोग में कुशल वणिक् वेषधारी बहुत बड़ा चोर पकड़ा गया। इस समय देव ही प्रमाण हैं अर्थात् अब जो करना हो, आप कीजिए। तब राजा ने कहा-उससे क्या (प्रयोजन)? मार डालो। चाण्डाल (प्राणवाटक) के घर ले जाया गया। राजा के कुल क्रम से चले आये विश्वस्त पुरुषों को समर्पित किया गया। इनसे कहा गया-- रे ! महाराज आज्ञा देते हैं-इस चोर को मार डालो। उन्होंने कहा-जो महाराज की आज्ञा । उनको समर्पित कर सिपाही चले गये। मुख्य चाण्डाल ने कहा-अरे ! किसके मारने की बारी है ? चाण्डालों ने कहा-मौर्य की। उसने कहाशीघ्र ही मौर्य को बुलाओ। मौर्य को बुलाया गया, (वह) आया। मुख्य चाण्डाल ने कहा-रे मौर्य ! इस चोर का वध करने के लिए महाराज ने भेजा है, अतः श्मशानभूमि में ले जाकर शीघ्र मार दो। दिन का एक प्रहरमात्र ही शेष है,
१. अन्न 'पिया वि मियारी, अंधवा विग्धा' इत्यधिक: पाठ:-क। २. भणियमारविखएहि' इत्पधिकः पाठः-क।
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