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________________ ६४० [समराइच्चकहा आमिसगंधवसागयबहुरावारावबहिरियदियंतं। बहुकंकगिद्धवायससहस्ससंछाइयनहग्गं ।। ६२८॥ एवंविहम्मि समरे मत्तावीडेण दप्पियं पि दढं। उठेऊण य निहयं' सेणबलं अमरिसवसेण ।।६२६॥ भग्गम्मि सेणराया बंदिसमग्घटुपवरनियगोत्तो। समुवढिओ समाहयतूररवप्फुग्णसव्वदिसं ॥६३०।। आवडियं तेण समं तो समरं मुक्कतियसकुसुमोहं । पडिभडसंघडियभडोहसंकुलं तक्खणं चेव ॥६३१॥ आयण्णायढियजीवकोडिचक्कलियचावमक्केहि। अप्फण्णं गयणयलं सरेहि घणजलहरेहि व ।। ६३२।। वरतुरयखरखुरुक्खयधरणिरओहेण' ठइयसुरसिद्धं । संजणियबहलतिमिरं भरियाइ नहंतरालाई ॥६३३॥ आमिषगन्धवशागत बहुरावारावबधिरितदिगन्तम् । बहुकङ्कगृध्रवायससहस्रसंछादितन मोऽग्रम् ॥६२८।। एवं विधे समरे मुक्तापीठेन दर्पितमपि दृढम् । उत्थाय च निहतं सेनबलममर्षवशेन ॥६२६॥ भग्ने (सैन्ये) सेनराजो बन्दिसमुद्घोषितप्रवरनिजगोत्रः । समुपस्थित: समाहततूर्यरवापूर्णसर्वदिशम् ॥६३०॥ आपतितं तेन समं ततः समरं मुक्तत्रिदशकुसुमौघम् । प्रतिभटसंघटितभटौघसंकुलं तत्क्षणमेव ।।६३१॥ आकर्णाकृष्टजीवाकोटिवक्रीकृत चापमुक्तः । आपूर्ण गगनतलं शरैर्घनजलधरैरिव ।।६३२।। वरतुरगखरखुरोत्खातधरणीरजओघेन स्थगितसुरसिद्धम् । सञ्जनितबहलतिमिरं भृतानि नभोऽन्तरालानि ।'६३३॥ ___ मांस की गन्ध के वश आये हुए, अनेक प्रकार के शब्दों से दिशाओं के छोर को बहरा करते हुए, कई हजार कंक, गीध और कौओं से आकाश का अग्रभाग ढक गया। इस प्रकार के युद्ध में मुक्तापीठ अत्यधिक गर्वयुक्त हो क्रोधवश बढकर सेना को मारने लगा। सेना के नष्ट होने पर बन्दियों द्वारा जिसके उत्कृष्ट स्वकीय गोत्र की घोषणा की गयी थी ऐसा सेन राजा बजाये हुए वाद्यों के शब्द से दिशाओं को पूरता हुआ उपस्थित हुआ। अनन्तर मुक्तापीठ के साथ उसका युद्ध हुआ। देवताओं ने फूल बरसाये । योद्धाओं का समूह उसी क्षण प्रतिपक्षी योद्धाओं से भिड़कर व्याप्त हो गया। कानों तक खींची गयी प्रत्यंचा के कारण गोलाकार हुए धनुषों से छोड़े गये बाणों से आकाशतल उसी तरह व्याप्त हो गया, जिस तरह घने मेघों से व्याप्त हो जाता है। श्रेष्ठ अश्वों के खुरों से ऊपर उड़ी हुई धरातल की धूलि-समूह से सुर और सिद्धों (के मार्ग) अवरुद्ध हो गये, गहरा अन्धकार आकाश के अन्तरालों में भर गया ॥६२८-६१३॥ १. भगक । २. क्या-क । १. बहराता (दे.) गाली । ४, अपकलिय (ई.) मन:। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001882
Book TitleSamraicch Kaha Part 2
Original Sutra AuthorHaribhadrasuri
AuthorRameshchandra Jain
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1996
Total Pages450
LanguagePrakrit, Sanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Story, & literature
File Size11 MB
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