________________
नवमो भवो]
समुप्पन्नो संदरीए कुच्छिसि । दिट्ठो य तीए सुविणयम्मि तीए चेव रयणीए पहायसमयम्मि पणासयंतो तिमिरं मंडयंतो नहसिरि विवोहयंतो कमलायरे पगासयंतो जोवलोयं वंदिज्जमाणो लोएहि थत्वमाणो रिसिगणेहि उवगिज्जमाणो किन्नरेहिं अग्धिज्जमाणो लच्छीए अच्चंतपसंतमंडलो मिबंधणं सम्वकिरियाण चूडामणी उदयधराहरस्स सम्बत्तमतेयरासी दिणयरो क्यणेणमयरं पविसमाणो ति। पासिऊण य तं सुहविउद्धा । सिट्टो य तीए जहाविहि दइयस्स। हरिसवसुम्मिन्नपुलएणं भणिया य तेणं-देवि, तेल्लोक्कविक्खाओ ते पुत्तो भविस्सइ । तओ सा 'एवं' ति भत्तारवपणमहिणंदिऊण हरिसिया चित्तेण । तओ विसेसओ तिवग्गसंपायणरयाए संपाडियसयलमणोरहाए अभग्गमाणपसरं पुण्णहलमणहवंतीए पत्तो पसूइसमओ। तओ पसत्थे तिहिकरणमहत्तजोए विणा परिकिलेसेण पसूया एसा । जाओ से दारओ। निवेइओ राइणो पुरिससोहस्स हरिसनिब्भराए सिद्धिमइनामाए सुंदरिचेडियाए । परितुट्ठो राया। दिन्नं सिद्धिमईए पारिओसियं । भणिया य पडिहारी; जहा समाइससु णं मम वयपेण जहासन्निहिए पडिहारे, जहा 'मोयावेह मम रज्जे कालघंटापओएण सव्वबंधणाणि,
सुन्दर्याः कुक्षौ । दृष्टश्च तया स्वप्ने तस्यामेव रजन्यां प्रभातसमये प्रणाशयन् तिमिरं मण्डयन् नभःश्रियं विबोधयन कमलाकरान् प्रकाशयन जीव लोकं वन्द्यमानो लोकैःस्तूयमान ऋषिगणरुपगीयमानः किन्नरैरय॑मानो लक्षम्याऽत्यन्तप्रशान्तमण्डलो निबन्धनं सर्वक्रियाणां चूडामणिरुदयधराधरस्य सर्वोत्तमतेजोराशिदिनकरो वदनेनोदरं प्रविशन्निति । दृष्ट्वा च तं सुखविबुद्धा। शिष्टश्च तया यथाविधि दयितस्य । हर्षवशोभिन्नपुलकेन भणिता च तेन-देवि ! त्रैलोक्यविख्यातस्ते पुत्रो भविष्यति । ततः सा ‘एवम्' इति भर्तृवचनमभिनन्द्य हर्षिता चित्तेन । ततो विशेषतस्त्रिवर्गसम्पादनरतायाः सम्पादितसकलमनोरथाया अभग्नमानप्रसरं पुण्यफलमनुभवन्त्याः प्राप्त: प्रसूतिसमयः । ततः प्रशस्ते तिथिक रणमुहूर्त योगे विना परिक्लेशेन प्रसूतैषा जातस्तस्य दारकः । निवेदितो राज्ञः पुरुषर्षा सहस्य हर्षनिर्भरया सिद्धिमतीनामया सुन्दरीचेटिकया । परितुष्टो राजा । दत्तं सिद्धिमत्यै पारितोषिकम् । भणिता च प्रतीहारो, यथा समादिश तद मम वचनेन यथासन्निहितान् प्रतीहारान यथा मोचयत मम राज्ये कालघण्टाप्रयोगेण सर्वबन्धनानि. दापयत घोषणापूर्वकमनपेक्षितानुरूपं
करते हुए देखा। वह अन्धकार को नष्ट कर रहा था, आकाश-लक्ष्मी का मण्डन कर रहा था, कमलों के समूह को जाग्रत कर रहा था, संसार को प्रकाशित कर रहा था। लोग उसकी वन्दना कर रहे थे, ऋषिगण स्तुति कर रहे थे, किन्नर गान कर रहे थे, लक्ष्मी अर्घ्य दे रही थी। वह अत्यन्त शान्त परिवेशवाला था, समस्त क्रियाओं का कारण था, उदयाचल का चूडामणि था तथा सर्वोत्तम तेजराशि था। उसे देखकर (यह) सुखपूर्वक जाग उठी। उसने विधिपूर्वक पति से निवेदन किया। हर्षवश जिसे रोमांच प्रकट हो रहा था, ऐसे उसने (राजा ने) उससे कहा-'देवी ! तीनों लोकों में विख्यात तुम्हारा पुत्र होगा।' अनन्तर पति के वचनों का 'अच्छा !' इस प्रकार अभिनन्दन कर चित्त से हर्षित हुई । अनन्तर विशेष रूप से धर्म, अर्थ और काम में रत रहते हुए समस्त मनोरथों को सम्पादित कर, जिसके विस्तार को नष्ट नहीं किया जा सकता है, ऐसे पुण्य के फल का अनुभव करते हुए (उसका) प्रसव का समय आया। अनन्तर शुभ तिथि, करण और मुहूर्त के योग में बिना क्लेश के इसने प्रसव किया । उसके पुत्र उत्पन्न हुआ। हर्ष से भरी हुई सिद्धिमती नामक सुन्दरी की दासी ने राजा पुरुषसिंह से निवेदन किया । राजा सन्तुष्ट हुआ। (उसने) सिद्धिमती को पारितोषिक दिया और प्रतीहारी से कहा कि मेरे कथनानुसार समीपवर्ती प्रतीहारों को आज्ञा दो कि समय (सूचक) घण्टा बजाकर मेरे राज्य के समस्त बन्दियों को छोड़
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org