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________________ ७६० सव्वो जीए सुरूवो सव्यो गुणरयणभूसिओ निच्चं । सव्वो सुवित्थयधणो सव्वो धम्मुज्जुओ लोओ ॥ ६८० ॥ रेहति जीए सीमा सरेहि नलिणीवणेहि य सराई । कमलेहि य नलिणीओ कमलाइ य भमरवंद्र हि ॥ ६८१ ॥ तीए य राया पणयारिवंद्र सामन्नसयलविहवो वि । नवरमसामन्नजसो नामेणं पुरिससीहो ति ॥ ६८२ ॥ कित्ति व्व तस्स जाया निम्मलवसुब्भवाऽकलंका य । सव्वंगसुंदरी सुंदरि ति नामेण ससिवयणा ।। ६८३ ॥ धम्मत्थभग्गपसरं तोए सह सोक्खमणुहवंतस्स । पणsaणकयाणंद वोलीणो कोइ कालो त्ति ॥ ६८४ ॥ ओय सो सव्वट्टसिद्धमहाविमाणवासी देवो अहाउयमणुपालिऊण तओ चुओ समाणो [ समराइच्चकहा सर्वो यस्यां सुरूपः सर्वो गुणरत्नभूषितो नित्यम् । सर्वः सुविस्तृतधनः सर्वो धर्मोद्यतो लोकः ॥ ६८० ॥ राजन्ति यस्यां सीमा सरोभिर्नलिनीवनैश्च सरांसि । कमलैश्च नलिन्यः कमलानि च भ्रमरवन्द्रः ॥ ८१ ॥ तस्यां च राजा प्रणतारिवन्द्रसामान्य सकल विभवोऽपि । नवरमसामान्ययशा नाम्ना पुरुषसिंह इति ॥ ६८२ ॥ कीर्तिरिव तस्य जाया निर्मलवंशोद्भवाऽकलङ्का च । सर्वाङ्गसुन्दरी सुन्दरीति नाम्ना शशिवदना ॥ ६८३ ॥ धर्मार्थाभिग्नप्रसरं तया सह सौख्यमनुभवतः । प्रणयिजनकृतानन्दमतिक्रान्तः कोऽपि काल इति ॥ ९८४ ॥ इतश्च स सर्वार्थसिद्धमहाविमानवासी देवो यथाऽऽयुष्कमनुपालय ततश्च्युतः सन् समुत्पन्नः थी, जिसे ब्रह्मा ने अस्थिर रूप से ( थोड़े समय के लिए) कुपित होकर ही किसी प्रकार पृथ्वीतल पर उतरी हुई देखकर परिवारूपी रस्सी से बाँध दिया था; जिस (नगरी) में सभी मनुष्य सुन्दर रूपवाले थे, सभी नित्यरूप गुरूपी रत्नों से विभूषित थे, सभी के पास विस्तृत धन था और सभी लोग धर्म में उद्यत थे । जिसकी सीमा तालाब, कमलिनी, वनों से युक्त तडागों से तथा कमल, कमलिनी और भौंरों के समूह से युक्त कमलों से शोभायमान थी, उस नगरी में शत्रुओं से नमस्कृत और समस्त वैभवों में सामान्य होने पर भी असामान्य यशवाला पुरुषसिंह नाम का राजा था । निर्मल वंश में उत्पन्न, कलंकरहित, सर्वांग सुन्दरी, चन्द्रमुखी 'सुन्दरी' नाम की ( उसकी पत्नी थी, जो कीर्ति के समान थी । धर्म और अर्थ के विस्तार को नष्ट न करते हुए प्रणयीजनों के योग्य आनन्द पाते हुए, उसके साथ सुख का अनुभव करते हुए उसका कुछ समय बीत गया ।। ६७८ ६८४|| इधर वह सवार्थसिद्धि नामक महाविमान का निवासी देव आयु पूरी कर, वहाँ से च्युत होकर, 'सुन्दरी' के गर्भ में आया । उसने ( सुन्दरी ने) उसी रात में प्रातःकालीन वेला में स्वप्न में सूर्य को मुख से बदर में प्रवेश Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001882
Book TitleSamraicch Kaha Part 2
Original Sutra AuthorHaribhadrasuri
AuthorRameshchandra Jain
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1996
Total Pages450
LanguagePrakrit, Sanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Story, & literature
File Size11 MB
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