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॥ नवमो भवो॥
गणचंदवाणमंतर जं भणियमिहासि तं गयमियाणि।
वोच्छामि जमिह सेसं गुरूवएसाणुसारेणं ॥ ६७७ ॥ अत्थि इहेव जंबद्दीवे मेवे भारहे वासे उत्तुंगभवणसंरुद्धरविरहमग्गा माणिक्कमुत्ताहिरण्णधन्नाउलरुदहट्टमग्गा सुसन्निविटुतियचउक्कचच्चरा देवउलविहाराराममंडिया उज्जेणी नाम नयरो।
जा तिलयकयच्छाया वियड्ढवेसाहिराममहकमला। पायारेण पिएण व पिय व्व गाढं समवगूढा ॥ ६७८ ॥ अथिरत्तणकुविएण व दटूणं कहवि महियलोइण्णा। फलिहारज्जुनिबद्धा तिहुयणरिद्धि व्व जा विहिणा॥ ६७६ ॥
गुणचन्द्रवानमन्तरयोर्यद् भणितमिहासीत् तद्गतमिदानीम् ।
वक्ष्ये यदिह शेषं गुरूपदेशानुसारेण ॥ ६७७ ॥ अस्तीहैव जम्बूद्वीपे द्वीपे भारते वर्षे उत्तुङ्गभवनसंरुद्ध रविरथमार्गा माणिक्यमुक्ताहिरण्यधान्याकुलविस्तीर्णहट्टमार्गा सुसन्निविष्टत्रिकचतुष्कचत्वरा देवकुलविहाराराममण्डिता उज्जयिनी नाम नगरी।
या तिलककृतच्छाया विदग्धवेश्या (वेषा)-भिराममुखकमला। प्राकारेण प्रियेणेव प्रियेव गाढं समवगूढा ॥ ६७८ ॥ अस्थिरत्वकुपितेनेव दृष्ट्वा कथमपि महीतलावतीर्णा । परिखारज्जुनिबद्धा त्रिभुवन ऋद्धिरिव या विधिना ॥ ६७६ ॥
गुणचन्द्र तथा वानमन्तर के विषय में जो कहा गया था वह बीत गया। अब जो शेष है उसे गुरु के उपदेश के अनुसार कहता हूँ ।।९७७॥
इसी जम्बूद्वीप नामक द्वीप के भारतवर्ष में उज्जयिनी नामक नगरी थी। वहां के ऊँचे-ऊँचे भवनों से सूर्य के रथ के मार्ग रोके जाते थे। वहाँ के बाजारों के विस्तृत मार्ग मणि, मोती, स्वर्ण तथा धान्यों से व्याप्त थे। वहां तिराहों और चौराहों पर भलीप्रकार चबूतरे बनाये गये थे तथा वह नगरी मन्दिरों, विहारों और उद्यानों से मण्डित थी।
जो (नगरी) तिलक वृक्षों के द्वारा छाया प्रदान किये हुए (स्त्री-पक्ष में-तिलक के द्वारा कान्तियुक्त) चतुस्र, वेश्या (अथवा विदग्ध वेशवाली स्त्री) के मुख के समान कमलों से युक्त; प्राकार के द्वारा उस प्रकार आलिंगित थी, जिस प्रकार प्रिय के द्वारा प्रिया का आलिंगन किया जाता है; जो तीनों भुवनों की ऋद्धि के समान
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