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________________ ८७२ [समराइच्चकहा गमणं ति । एयमायण्णिऊण हरिसिओ अग्गिभूई । भणियं च णेण-भयवं, जो वीय रागो, सो परममज्झत्थयाए न कस्सह उवयारं करेइ ‘मा अन्नेसि पीडा भविस्सइ' ति; अकरतो य त 'हिओ सव्वजीवाणं'ति को एत्थ हेऊ। भववया भणियं-सोम, सुण। न खलु परमत्थदेसणाओ महामोहनासणेण अन्नो कोइ उवयारो । करेइ यतं भयवं अन्नपीडाचाएणं ति । एसेव एत्थ हेऊ । अग्गिभइणा भणियं-भयवं एवमुवासणाए को तस्स उवयारो, अविज्जमाणे य तम्मि कहं भणियफलसिद्धी, कह वा सा तओ त्ति । भयवया भणियं-सोम, सुण। न खलु तदुवगाराओ एत्थ फलसिद्धी, किंतु तदुवासणाओ। दिट्ठा य एसा तदुवगाराभावे वि विहिओवासणाओ चितामणिमंतजलणेहि; न य ते तेहिं तिप्पंति, किं तु तदणुसरणजवणासेवणेण अहिप्पेयत्थस्स होइ संपत्ती, न य सान तेहितो त्ति। एयमायण्णिऊण पडिबद्धो अग्गिभूई। भणियं च णेण---अहो भयवया सम्ममावेइयं, अवगओ मोहो, इच्छामि अणुसासणं ति। एत्यंतरम्मि अहिणवसावगो संगएणं वेसेणं सपरियणो समागओ धरिद्धिसेट्टी। कया भयवओ पत्तिः परमपदगमनमिति । एतदाकर्ण्य हर्षितोऽग्निभूतिः । णित चानेन- भगवन् ! यो वीतरागः स परममध्यस्यतया न कस्यचिदुपकारं करोति 'माऽन्येषां पीडा भविष्यति' इति, अकर्वश्च तं 'हितः सर्वजीवानाम्' इति कोऽत्र हेतुः। भगवता भणितम्-सौम्य ! शृणु। न खलु परमार्थदेशनाया महामोहनाशनेनान्यः कोऽप्युपकारः । करोति च तं भगवान् अन्यपीडात्यागेनेति । एष एवात्र हेतुः । अग्निभूतिना भणितम् -भगवन् ! एवमुपासनया कस्तस्योपकारः, अविद्यमाने च तस्मिन् कथं भणितफलसिद्धिः, कथं वा सा तत इति । भगवता भणितम्-सौम्य ! शृणु। न खलु तदुपकारादत्र फलसिद्धिः, किन्तु तदुपासनया । दृष्टा चैषा तदुपकाराभावेऽपि विहितोपासनाया चिन्तामणिमन्त्रज्वलनैः, न च ते तैः तृप्यन्ति, किन्तु तदनुसरणजपनासेवनेनाभिप्रेतार्थस्य भवति सम्प्राप्तिः, न च सा न तेभ्य इति । एतदाकर्ण्य प्रतिबद्धोऽग्निभूतिः। भणतं च तेन- अहो भगवता सम्यगावेदितम्, अपगतो मोहः, इच्छाम्यनुशासनमिति ।। अत्रान्तरेऽभिनवश्रावक: संगतेन वेषेण सपरिजनः समागतो धनऋद्धिश्रेष्ठी। कृता भगवत: भोग, अच्छे कुल में आना, सुन्दर रूप, विशिष्ट भोग, प्रवीणपना, धर्म की प्राप्ति और मोक्षगमन - ये उपासना के फल हैं।' यह सुनकर अग्निभूति हर्षित हुआ और इसने कहा -- 'भगवन् ! जो वीतराग होता है वह परमध्यस्थ होने से न किसी का उपकार करता है. न दसरों को पीडा पहुँचाता है। इस प्रकार न करता हआ वह सब जीवों का हितकारी है - इसमें क्या हेतु है ?' भगवान् ने कहा- 'सौम्य ! सुनो। परमार्थ उपदेश (दशना) का महामोह के नाश करने के अतिरिक्त कोई उपकार नहीं है। उसे भगवान् दूसरों का पीड़ा न पहुंवाकर करते हैं, यही यहाँ कारण है।' अग्निभूति ने कहा-'भगवन् ! इसी प्रकार उनकी उपासना से क्या उपकार होता है और उनके विद्यमान न होने पर कैसे कथित फल की सिद्धि होती है अथवा वह कैसे होती है ?' भगवान् ने कहा - 'सौम्प ! सुनो। निश्चय से उनके उपकार से यहाँ फल की सिद्धि नहीं होती है, अपितु उपासना से होती है। यह देखा जाता है कि चिन्तामणि मन्त्र के द्वारा उपकार का अभाव होने पर भी उपासना करने से चिन्तामणि मन्त्र की चमक से वे तृप्त नहीं होते हैं; किन्तु उसका अनुसरण, जाप, सेवन से इष्ट पदार्थ की प्राप्ति होती है, अतः नहीं कहा जा सकता है कि वह प्राप्ति उस मन्त्र से नहीं हुई । यह सुनकर अग्निभूति जाग्रत् हो गया और उसने कहा- 'ओह ! भगवान् ने ठीक बतलाया, मोह दूर हो गया। आदेश चाहता हूं।' तभी नवीन श्रावक के वेष से युक्त परिजनों के साथ धनऋद्धि सेठ आया। भगवान् की पूजा की। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001882
Book TitleSamraicch Kaha Part 2
Original Sutra AuthorHaribhadrasuri
AuthorRameshchandra Jain
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1996
Total Pages450
LanguagePrakrit, Sanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Story, & literature
File Size11 MB
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