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________________ ८७३ नवमो भवो] पूया। तो वंदिऊण भयवंतं वायगं च उवष्टिो तदंतिए । भणियं च णेण-भयवं, साहूण कयकारणाणुमईभयभिन्ना सावज्जजोयविरई; ता कहमेतेसि सावयाण थूलगपाणाइवायादिरूवाणन्वयप्पयाणे इयरम्मि अणुमई न होइ । भयवया भणियं-सोम, अविहिणा होइ न उ विहिप्पयाणेण । सेट्टिणा भणियं-भयवं, केरिसं विहिप्पयाणं । भयवया भणियं-सोम, सुण। संसिऊण संवेगसारं जहाविहिणा भवसरूवं अणवद्वियं एगंतेण कारणं दुक्खपरंपराए, तन्निग्घायणसमत्थं च अच्चंतियरसायणं जीवलोए अक्खेवेण साहगं मोक्खस्स जट्टियं साहुधम्म, जणिऊण सुद्धभावपरिणई वढिऊण संवेगं तहाविहकम्मोद रण अपडिबज्नमाणेसु तं सावएसु उज्जएसु अणुव्वयगहणम्मि मज्झत्थस्स मुणिणो पसत्थखेत्ताइम्मि आगाराइपरिसुद्धं पयच्छंतस्स विहिप्पयाणं ति। सेट्टिणा भणियं-भयवं एवं पि कहं तस्स इयरम्मि अणुमई न होइ । भयवया भणियं - सोम, सुण । गाहावइचोर(पुत्त)ग्गहणविमोवखणयाए एत्थ दिळंतो। अस्थि इह वसंतउरं नपरं, जियसत्तू राया, धारिणी देवी । नट्टाइसएण परिउट्ठो से भत्ता। भणिया य जेण-भण, किं ते पियं करीयउ। तीए भणियं - अज्जउत्त, कोमईए पूजा । ततो वन्दित्वा भगवन्तं वाचकं चोपविष्टस्तदन्तिके । भणितं च तेन- भगवन ! साधनां कृतकारणान मतिभेदभिन्ना सावद्ययोगविरतिः, ततः कथमेतेषां श्रावकाणां स्थल प्राणातिपातादिपाणवतप्रदाने इतरस्मिन् अनुमतिर्न भवति । भगवता भणितम्-सौम्य ! अविधिना भवति, न त विधिप्रदानेन । श्रेष्ठिना भणितम् --भगवन ! कीदृशं विधिप्रदान म । भगवता भणितम्-सौम्य ! शृण । शंसित्वा संवेगसारं यथाविधि भवस्वरूपमनवस्थितमेकान्तेन कारणं दुःखपरम्परायाः, तन्निर्घातनसमर्थं चात्यन्तिक रसायनं जीवलोकेऽक्षेपेण साधकं मोक्षस्य यथास्थितं साधधर्मम; जनित्वा शद्धभावपरिणति वर्धित्वा संवेगं तथाविधकर्मोदयेनाप्रतिपद्यमानेषु तं भाव केषद्यतेष अणुव्रतग्रहणे मध्यस्थस्य मुने: प्रशस्तक्षेत्रादिके आकारादिपरिशद्धं प्रयच्छतो विधिप्रदानमिति । श्रष्ठिना भणितम् - भगवन् ! एवमपि कथं तस्येतरस्मिन् अनुमतिर्न भवति । भगवता भणितमसौम्य ! शृणु । गृहपतिचौर (पुत्र)ग्रहणविमोक्षणतया अत्र दृष्टान्त: । अस्ति इह वसन्तपुरं नगरम, जितशत्र राजा, धारिणी देवी। नाट्यातिशयेन परितुष्टस्तस्या भर्ता। भणिता च तेन अनन्तर भगवान् वाचक की वन्दना कर उनके पास बैठा और उसने कहा-'भगवन् ! साधुओं की सावद्ययोगविरति कृत-कारित-अनुमोदना भेद से भिन्न है अतः इन श्रावकों के स्थूल हिंसा के त्यागादिरूप अणुव्रतों के प्रदान करते समय दूसरे सावद्ययोगविरति में अनुमति क्यों नहीं है ?' भगवान् ने कहा - 'सौम्म ! विधिरहित होती है, विधिपूर्वक प्रदान करने से नहीं होती है ।' सेठ ने कहा- 'भगवन् ! विधिपूर्वक प्रदान करना कैसा होता है?' भगवान् ने कहा --'सौम्प ! सुनो-विधिपूर्वक विरक्ति के सार की प्रशंसा करके अस्थिर संसार के स्वरूप को जो अत्यन्त रूप से दुःव की परम्परा का कारण है, उसे नष्ट करने में समर्थ और जो संसार में अविनाशी रसायन है नया मोक्ष का साधक है ऐसे यथास्थित साधुधर्म को शुद्ध भावों की परिणति उत्पन्न कर, वैराग्य बढ़ाकर उस प्रकार के कर्मों के उदय से उस प्रकार के कर्मों को अंगीकार न करने से उन श्रावकों के अणवत ग्रहण में उद्यात होने पर मध्यस्थ मुनि के प्रशस्त क्षेत्रादि में आकर आदि से शुद्ध विधि प्रदान की जाती है। सेठ ने कहा"भगवन् ! इस प्रकार कैसे उसकी दूसरे में अनुमति नहीं होती है ?' भगवान ने कहा-'सौम्य ! सुनो। गहपति के चोरपुत्र के पकड़ने और छोड़ने का दृष्टान्त है। यहाँ वसन्तपुर नामक नगर है । वहाँ का राजा जित शत्रु था और धारगी महारानी थी। नाट्य के अतिशय से उसके ऊपर पति सन्तुष्ट हुआ और उसने कहा कहो, Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001882
Book TitleSamraicch Kaha Part 2
Original Sutra AuthorHaribhadrasuri
AuthorRameshchandra Jain
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1996
Total Pages450
LanguagePrakrit, Sanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Story, & literature
File Size11 MB
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