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[ समराइच्चकहा
अंतेउराण जहिच्छापयारेण ऊसवपसाओ त्ति। पडिस्सुयमणेण । समागओ सो दियहो। करा वियं राइणा घोसणं, जहा 'जो अज्ज एत्थ पुरिसो वसिहिह, तस्स मए सारीरो निगहो काययो' । उग्गदंडो राय त्ति निग्गया सव्वपुरिसा, नवरं एगस्स सेट्ठिणो छस्सुया संववहारवावडयाए लहु न निग्गया। ढक्कियाओ पओलीओ। भएण तत्थेव निलुक्का। वतो रयणीए ऊसवो। बिइदियहे राइणा पउत्ता चारिगा। हरे गवेसह; को एत्थ न निग्गओ त्ति। तेहिं निउणबुद्धीए गवेसिऊण साहियं रन्नो। महाराय, अमुगसेट्ठिस्स छस्सुया न निग्गय त्ति । कुविओ राया। भणियं च ण-वावएह ते दुरायारे । गहिया रायपुरिसेहि, उवणीया वज्झथामं । एयमायण्णिऊण भीओ तेसि पिया। समागओ नरवइसमीवं । विन्नत्तो राया। देव, खमसु ममेक्कमवराह मुयह एक्कवारमेए। 'मा अन्ने वि एवं करेस्संति' त्ति न मेल्लेइ राया। पुणो पुणो भण्ण पाणेण ‘मा कुलखओ भवउ' त्ति मुक्को से जेट्टपुत्तो। बहुमन्निओ सेटिणा। वावाइया इयरे। न य समभावस्स सम्बेसु एगबहुमन्नणे अणुमई सेसेसु त्ति । एस दिद्रुतो, इमो इमस्स उवणओ। रायतुल्लो सावओ, वावाइज्जमाणवाणियगसुयतुल्ला जीवनिकाया,
भण, किं ते प्रियं क्रियताम। तया भणितम--आर्य पुत्र ! कौमुद्यामन्तःपुरा यथेच्छाप्रकारेणोत्सव प्रमःद इति । प्रतिश्रतमनेन। समागतः स दिवसः । कारित राज्ञा घोषणम, यथा 'योऽद्यात्र पुरुषो वत्स्यति तस्य मया शारो निग्रहः कर्तव्यः' । उग्रदण्डो राजेति निर्गत: सर्वपुरुषाः, नवरमेकस्य श्रेष्ठिनः षट सुता: संव्यवहारव्यापततया लघन निर्गताः । स्थगिता: प्रतोल्य: : भयेन तत्रैव गुप्ताः । वृत्तो रजन्यामुत्सवः। द्वितीयदिवसे राज्ञा प्रयुक्ताश्चारिकाः- अरे गवेषयत, कोऽत्र न निर्गत इति । तनिष गबुद्धया गवेषयित्वा कथितं राज्ञ:--महाराज ! अमुव श्रेष्ठिन षट् सुता न निर्गता इति । कुपितो राजा । भणितं च तेन - गपादयत तान् दुराचारान् । गृहीता राजपुरुष, उपनता वध्यस्थानम् । एतदाकर्ण्य भीतस्तेषां पिता। समागतो नरपतिसमीपम। विज्ञप्तो राजा देव ! क्षमस्व ममैकमपराधम्, मुञ्चतैकवारमेतान् । 'माऽन्येऽप्येवं करिष्यन्ति' इति न मुञ्चति राजा। पुनः पुनर्भण्यमानेन ‘मा कुलक्षयो भवतु' इति मुक्तस्तस्य ज्येष्ठपुत्रः । बहुमानतः श्रेष्ठिना । व्यापादिता इतरे । न च समभावस्य सर्वेष्वेकबहुमाननेऽनुमतिः शेषष्विति । एष दृष्टान्तः । अास्योपनयः । तेरा क्या प्रिय कहँ ? उसने कहा -आर्यपुत्र ! कौमुदी महोत्सव पर अन्त पुरवासियों की इच्छानुसार उत्सव करें, ऐसा अनुग्रह कीजिए । इसने स्वीकार किया। वह दिन आया । राजा ने घोषणा करायी कि 'यहाँ आज जो पुरुष निवास करेगा, उसे मैं शारीरिक दण्ड दूंगा।' 'राजा कठोर दण्डदेने वाला है' ऐसा सो वार सभी पुरुष निकल गये । केवल एक सेठ के छह पुत्र व्यापार में लगे रहने से शीघ्र नहीं निकले । गलियाँ रोक दी गयी थीं। भय से वे वहीं छिप गये । रात्रि में उत्सव हुआ। दूसरे दिन राजा ने दूत भेजे । अरे खोजो, यहाँ कोन नहीं निकला ? उन्होंने चतुर बुद्धि से खोजकर राजा से कहा-महाराज ! अमुक सेठ के छह पुत्र नहीं निकले। राजा कुपित हआ और उसने कहा -- उन दुराचारियों को मार डालो। राजपुरुषों ने पकड़ लिया, वध करने योग्य स्थान पर ले गये । यह सुनकर उनका पिता डर गया राजा के पास आया। राजा से निवेदन किया--महार मेरा अपराध क्षमा करो, इन्हें एक बार छोड़ दो। नहीं, अन्य भी ऐसा करेंगे'---इस प्रकार राजा ने नहीं छोड़ा। बार-बार कहे जाने पर 'कुल का विनाश न हो' अतः उसका बड़ा लड़का छोड़ दिया। सेठ ने आदर किया। दूसरे मार डाले गये। सभी के प्रति समभाव होने पर एक को न मारने की आज्ञा का आदर करने में शेष को मार डालने की अनुमति नहीं है -- यह दृष्टान्त है। इसकी उपलब्धि यह है । श्रावक राजा के तुल्य है। मारे जानेवाले
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