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________________ नवमो भयो] ८७५ वाणियगतुल्लो साहू, बिन्नवणतुल्ला अणुव्वयगहणकाले साहुधम्मदेसणा । एवं च सुहुमजीवनिकायअमुयणे वि सावयस्स न तेसु साहुणो अणुमई, इयरहा होइ अविहिनिप्फन्न । एवं सव्वत्थ अविहिनिप्फन्नो दोसो। अओ चेव भयवया भणियं-पढम नाण तओ दय त्ति । नाणपुव्वयं सव्वमेव सम्माणद्वाणं ति । एयमायण्णिऊण हरिसिओ धरिद्धी। भणियं च ण-भयवं, एवमयं, अहो सुदिट्ठो भयवं तेहि धम्मो। एत्थतरम्मि पुव्वागएणव पणमिऊण भयवतं भणियं जसोय देण। भयवं, जे खल इह थेवस्स वि पमायचेट्टियस्स दारुणविवागा सुणीयंति, ते किं तहेव उदाहु अन्नहा। भयवया भणियं- सोम, सुण । जे आगमणिया ते तहेव; जो न अन्नहावाइणो जिणा। ज उण आगमबाहिरा, तेसु जइच्छ त्ति । असोयचंदेण भणियं-भयवं, जइ एवं, ता कीस केसिंचि पाणवहाइकिरियापवत्ताण अच्चंतविरुद्धकारीण वि इद्वत्थसंपत्ती विउला भोगा दोहमाउयं अतुट्टो य तयणुबंधो; अन्नेसि च थेवे वि अवराहे सव्वविवज्जओ ति। भयवया भणियं -सोम, सुण। विचित्ता कम्मपरिणई। जे खलु राजतल्यः श्रावकः, व्यापाद्यमानवाणिजकसुततुल्या जीवनिकायाः, वाणिजकतल्यः साधुः विज्ञापनतुल्या अणुव्रतग्रहणकाले साधुधर्मदेशना । एवं च सूक्ष्मजीवनिकायामोचनेऽपि श्रावकस्य न तेष साधोरनुमतिः, इतरथा भवत्यविधिनिष्पन्ना । एवं सर्वत्राविधिनिष्पन्नो दोषः । अत एव भगवता भणितम्-प्रथमं ज्ञानं ततो दयेति। ज्ञानपूर्वकं सर्वमेव सम्यगनुष्ठानमिति । एतदाकर्ण्य हषितो धनऋद्धिः । भणितं च तेन-भगवन ! एवमेतद्, अहो सुदृष्टो भगवद्भिर्धर्मः । ___ अत्रान्तरे पूर्वागतेनैव प्रणम्य भगवन्तं भणितमशोकचन्द्रण-भगवन् ! ये खल्विह स्तोकस्यापि प्रमादचेष्टितस्य दारुणविपाकाः श्रूयन्ते, ते किं तथैव उताहो अन्यथा । भगवता भणितम्-सौम्य ! शृणु । ये आगमभणितास्ते तथैव, यतो नान्यथावादिनो जिनाः । ये पुनरागमबाह्यास्तेषु यदृच्छति । अशोकचन्द्रेण मणितम्-भगवन् ! यद्येवम्, ततः कस्मात् केषांचित् प्राणवधादिक्रिया प्रवृत्तानामत्यन्तविरुद्धकारिणामपि इष्टार्थसम्प्राप्तिविपुला भोगा दीर्घमायुरटिश्च तदनुबन्धः, अन्येषां च स्तोकेऽप्यप राधे सर्व विपर्यय इति । भगवता भणितम्-सौम्य ! शृण । विचित्रा कर्मपरिणतिः। ये खल्व वणिकपुत्रों के समान जीवसमूह है, साधु वणिक् के समान है। अणुव्रत ग्रहण करते समय साधु का धर्मोपदेश निवेदन के तुल्य है । इस प्रकार सूक्ष्म जीवों का समूह न छोड़ने पर भी श्रावक के लिए उनके विषय में साधु की अनुमति नहीं है। दूसरे प्रकार से अविधि की निष्पत्ति होती है। इस प्रकार सब जगह अविधि की निष्पत्ति का दोष है । अत एव भगवान् ने कहा है-पहले ज्ञान हो तब दया। ज्ञानपूर्वक सभी धार्मिक विधि-विधान ठीक होते हैं । यह सुनकर धनऋद्धि हर्षित हुआ और उसने कहा-'भगवन् ! यह ठीक है, ओह ! भगवान् ने धर्म भलीभौति देखा (जाना) है। . इसी बीच मानो पहले आये हुए होने से अशोकचन्द्र ने भगवान् को प्रणाम कर कहा-'भगवन् ! जो कि यहाँ थोड़े से भी प्रमाद करने के भयंकर फल सुने जाते हैं, क्या वे वैसे ही हैं अथवा दूसरे प्रकार से हैं ?' भगवान ने कहा-'सौम्य ! सुनो । जो आगम में कहे गये हैं, वैसे ही हैं; क्योंकि जिन अन्यथा कहनेवाले नहीं होते हैं । जो आगमबाह्य हैं उनमें इच्छानुसार नियम है।' अशोकचन्द्र ने कहा- 'भगवन ! यदि ऐसा है तो कैसे किन्हीं प्राणि | आदि क्रियाओं में लगे हए अत्यन्त विरुद्ध कार्य करनेवालों के इष्ट पदार्थों की प्राप्ति होती है और वह सिलसिला नष्ट नहीं होता है; और दूसरे व्यक्तियों के थोड़े से अपराध पर सब विपरीत हो जाता है ?' भगवान् ने कहा-'सौम्य ! सुनो । कर्म की परिणति विचित्र है। जो अशुभबन्ध वाले कर्मों से युक्त, संसार का अभिनन्दन Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001882
Book TitleSamraicch Kaha Part 2
Original Sutra AuthorHaribhadrasuri
AuthorRameshchandra Jain
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1996
Total Pages450
LanguagePrakrit, Sanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Story, & literature
File Size11 MB
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