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________________ अट्ठमो भवो ] मेतोबलो नाम राया। तस्स सपलंतेउरप्पहाणा पउमावई नाम देवो। स (सो)इमोए सह विसयसुहमविसु ति। इओ य सो नवमोवेज्जयनिवासी देवो अहाउयं पालिऊण चुओ समाणो समुप्पन्नो पउमावईए कुच्छिसि । दिळं च णाए सुमिणयम्मि तीए चेव रयणीए पहायसमम्मि विमलमहा. सलिलपडिहत्थं समद्धासियं नलिणिसंडेणं विरायमाणं विउद्धकमलायरसिरोए हंसकारंडवचक्कवाओवसोहियं रुणरुणंतेणं भमरजालेणं समन्नियं कप्पपायवराईए समासन्नदिव्योववणसोहियं पणच्चमाणं पिव कल्लोललीलाकरेहि महंत सरवरं वयणेणमयरं पविसमाणं ति । पासिऊण य तं सुहविउद्धा एसा। साहिओ य तीए जहाविहिं दइयस्स । हरिसवसग्घवियपुलएणं भणिया य तेणं-सुंदरि, सयलमेइणोसरनारदकमलायरभोयलालसो महारायहंसो ते पुत्तो भविस्सइ। पडिस्सुयं तीए। अहिययर परितुद्वा एसा। तओ सविसेसं तिवग्गसंपायणरयाए पत्तो पसूइसमओ । तओ पसथतिहिकरणमहत्तजोए सुहंसहेणं पसूया एसा। दसदिसि उज्जोयंतो सुकुमालपाणिपाओ जाओ से दारओ। निवेइओ राइणो मेतीबलस्स पमोयमंजूसाभिहाणाए चेडियाए, जहा 'महाराय, देवी पउमावई दारयं तस्य सकलान्तःपुरप्रधाना पद्यावतो नाम देवी। सोऽनया सह विषयसुखमन्वभूदिति । इतश्च स नवमग्रैवेयकनिवासी देवो यथायुष्कं पालयित्वा च्युतः सन् समुत्पन्नः पद्मावत्याः कुक्षौ । दृष्टं च तया स्वप्ने तस्थामेव रजन्यां प्रभातसमये विमलमहासलिलपरिपूर्ण समध्यासितं नलिनीषण्डेन विराजमानं विबुद्धकमलाकरश्रिया हंसकारण्डवचक्रवाकोपशोभितं रुण रुणायमानेन भ्रमरजालेन समन्वितं कल्पपादपराज्या समासन्नदिव्योपवनशोभितं प्रनत्यदिव कल्लोललीलाकरैर्महत् सरोवरं वदनेनोदरं प्रविशदिति । दृष्ट्वा च तत् सुखविबुद्धषा । कथितश्च तया यथाविधि दयितस्य । हर्ष वशपूर्णपुलकेन भणिता च तेन-सुन्दरि ! सकलमेदिनीश्वरनरेन्द्रकमलाकरभोगलालसो महाराजहंसस्ते पुत्रो भविष्यति । प्रतिश्रुतं तया। अधिकतरं परितुष्टैषा। ततः स विशेष त्रिवर्गसम्पादनरतायाः प्राप्तः प्रसूतिसमयः । ततः प्रशस्ततिथिकरणमूहर्तयोगे सूखसुखेन प्रसूतैषा । दश दिश उद्योतयन् सुकुमार. पाणि दो जातस्तस्या दारकः । निवेदितो राज्ञो मैत्रीबलस्य प्रमोदमञ्जूषाभिधानया चेटिकया, यथा 'महाराज ! देवी पद्मावती दारकं प्रसूता' इति । परितुष्टो राजा । दत्तं तस्यै पारितोषिकम् । समस्त अन्तःपुर में प्रधान पद्मावती नामक रानी थी । वह इस के साथ विषयसुख का अनुभव कर रहा था । इधर वह नवम ग्रैवेयक का निवासी देव आयु पूरी कर च्युत होकर पद्मावती की कुक्षि में उत्पन्न हुआ। पद्मावती ने उसी रात स्वप्न में प्रात: समय स्वच्छ जल से परिपर्ण, कमलिनी समूह से युक्त, विकसित कमलों के समूह की शोभा से सुशोभित, हंस, कारण्डव तथा चक्रवों से शोभित, भ्रमरसमूह से गुंजायमान, कल्पवृक्षों की पंक्ति से युक्त, समीपवर्ती दिव्य उद्यान से शोभित, तरंगरूपी हाथों की लीलाओं से मानो नृत्य करता हुआ, एक महान् सरोवर मुख से उदर में प्रवेश करता हुआ देखा। उसे देखकर यह सुखपूर्वक जाग गयी और उसने विधिपूर्वक पति से स्वप्न के विषय में कहा। हर्षवश रोमांचयुक्त होकर उसने कहा---'सुन्दरि ! कमलों के समूह (सरोवर, लक्ष्मी) के भोग की लालसा वाले राजहंस के समान समस्त पृथ्वीपतियों का स्वामी तुम्हारा पुत्र होगा।' उसने स्वीकार किया। यह (रानी) अत्यधिक सन्तुष्ट हुई। अनन्तर विशेष रूप से धर्म, अर्थ और काम में रत रहते हुए इसका प्रसति समय आया। तब प्रशस्त तिथि, करण और महतं के योग में अत्यधिक सखपर्वक इसने प्रसव ! दिशाओं को प्रकाशित करता हुआ, सुकुमार हाथ-गरों वाला उसके बालक हुआ । प्रमोदमंजूषा नामक दासी ने मैचीबल में निवेदन किया कि महाराज देवी प्रधानतीने पुत्र पसव किया है। राजा सन्तुष्ट हुआ द्वामी को Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001882
Book TitleSamraicch Kaha Part 2
Original Sutra AuthorHaribhadrasuri
AuthorRameshchandra Jain
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1996
Total Pages450
LanguagePrakrit, Sanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Story, & literature
File Size11 MB
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