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________________ [ समराइच्चकहा पसूय' त्ति । परितुद्दो राया। दिन्नं तीए पारिओसियं । करावियं बंधणमोयणाइयं उचियकरणिज्ज । हरिसिओ नयरिजणवओ। ऊसियाओ भवणेसु आणंदधयवडायाओ। कयाओ आययणेसु मणहरविसेसपूयाओ, पउत्ताइं च पइभवणेसु वज्जंतेणं परमपमोयतूरेणं गिज्जतेणं जम्ममंगलगेएणं नच्चंतीहिं तरुणरामाहि पेच्छंतीहिं सहरिसं वुड्ढाहि पिज्जमाणपवरासवाई वड्ढमाणहल्लप्फलयाई उल्लासंतेणं तरियसंघाएणं फलं पावें तेणं वेयालियसम हेणं अच्चुदारविच्छड्डाई महापमोयपिसुणयाई ति । उचियवेलाए य सन्वभवणेहितो निग्गया नयरिजणवया, पयट्टा य रायभवणसंमुहं । ते य तहा पेच्छिऊण हरिसवसपयट्टपुलओ संभमाइसएण सहरिसनच्चंतवारविलयासमेओ नयरिजणाभिमुहमेव निग्गओ राया। वद्धाविओ पुत्तजम्मभदएणं नयरिजणवहि । भणिया य राइणा- तुम्हाणं चेव एसा वुद्धि त्ति । अहिणंदिऊण सबहुभाणं पेच्छिऊण तेसि विच्छड्ड सम्माणिऊण जहोचियं पविट्ठो सभवाम्म । एवं च पइदिणं महंतमाणंदसोक्खमणुहवंतस्स समइच्छिओ पढनमासो। पइट्ठावियं नामं दारयस्स 'उचिओ एस एयस्स' कलिऊण पियामहसंतियं गुणचंदो ति । सो य विसिढ़पुण्णफलमणहवंतो पत्तो कुमारभावं। अच्चंताइसएण गहियाओ कलाओ। तं जहा - लेहं गणियं आलेक्खं नट गीयं वाइयं कारितं बन्धनमोचनादिकमुचितकरणीयम्। हर्षितो नगरीजनवजः। उत्सिता (उद्बद्धा) भवनेषु आनन्दध्वजपताकाः । कृता आयतनेषु मनोहरविशेषपूजाः, प्रयुक्तानि च प्रतिभवनं वाद्यमानेन परमप्रमोदतर्येण गीयमानेन जन्ममङ्गलगेयेन नृत्यन्तीभिस्तरुणरामाभिः प्रेक्षमाणाभिः सहर्ष वृद्धाभि: पीयमानप्रवरासवानि वर्धमानत्वराणि उल्लसता तर्यसङ्घातेन (पुष्पाण्युत्कीरता) फलं प्राप्नुवता वैतालिकसमूहेन अत्युदार विच्छर्दानि (-विभवानि) महाप्रमोदपिशुनकानि वर्धापनकानीति । उचितवेलायां च सर्वभवनेभ्यो निर्गता नगरीजनवजाः, प्रवृत्ताश्च राजसम्मुखम । तांश्च तथा प्रेक्ष्य हर्षवशप्रवृत्तपुलक: सम्भ्रमातिशयेन सहर्षनृत्यद्वारवनितासमेतो नगरीजनाभिमुखमेव निर्गतो राजा । वर्धापितः (वधितः) पुत्रजन्माभ्युदयेन नगरोजनवजैः । भणितश्च राज्ञा-युष्माकमेव एषा वृद्धिरिति । अभिनन्द्य सबहुमानं प्रेक्ष्य तेषां विच्छदं (वैभवं) सम्मान्य यथोचितं प्रविष्ट: स्वभवनम् । एवं च प्रतिदिन महद् आनन्दसौख्यमनुभवतः समतिक्रान्तः प्रथममासः । प्रतिष्ठापितं नाम दारकस्य 'उचित एष एतस्य' इति कलयित्वा पितामहसत्कं गुणचन्द्र इति । स च विशिष्टपुण्यफलमनुभवन् प्राप्तः कुमारभावम् । अत्यन्तातिशयेन गृहीताः कलाः। तद्यथा--लेखम्, गणितम्, आलेख्यम्, पारितोषिक दिया। बन्दियों की मुक्ति आदि योग्य कार्य किये। नगर का जन-समूह हर्षित हआ। भवनों में आनन्द से ध्वज और पताकाएं बांधी गयीं। मन्दिरों में विशेष पूजा की, प्रत्येक भवन में अत्यधिक हर्ष के सुचक उत्सव कराये। उस समय अत्यधिक खुशी से बाजे बजाये जा रहे थे, जन्म के मंगल गीत गाये जा रहे थे, तरुणियाँ नाच रही थीं. हर्षपूर्वक वद्धाएँ देख रही थीं, श्रेष्ठ मद्य पी जा रही थी, उत्सूकता बढ़ रही थी, वाद्य उल्लसित हो रहे थे, (फल बिखेरे जा रहे थे), वैतालिकों का समूह फल प्राप्त कर रहा था। ऋद्धियाँ अत्यन्त विशाल हो रही थीं। उचित समय पर समस्त भवनों से नगरी का जन-समूह निकला और राजा के सम्मुख चल पड़ा। उन्हें आते हए देखकर हर्षवश रोमांचित हो राजा अत्यधिक शीघ्रतावश हर्षपूर्वक नृत्य करती हुई वारांगनाओं के साथ नगरी के लोगों के सामने आया । नगरजन ने पूत्रजन्म के अभ्युदय से (राजा को) बधाई दी। राजा ने कहा---'आप लोगों की ही यह वद्धि है।' आदरपूर्वक अभिनन्दन कर, उनके वैभव को देखकर, यथोचित सम्मानकर (राजा) अपने भवन में प्रविष्ट हुआ। इस प्रकार प्रतिदिन बड़े आनन्द और सुख का अनुभव करते हए पहला माह बीत गया। 'यह इसके योग्य है।' ऐसा मानकर पुत्र का नाम पितामह के समान 'गुणचन्द्र' रखा गया। वह विशिष्ट पुण्य के फल का अनुभव करता हुआ कुमारावस्था को प्राप्त हआ। अत्यन्त अतिशयता से कलाएँ सीखीं। जैसे----लेख, गणित, चित्रकला, Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001882
Book TitleSamraicch Kaha Part 2
Original Sutra AuthorHaribhadrasuri
AuthorRameshchandra Jain
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1996
Total Pages450
LanguagePrakrit, Sanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Story, & literature
File Size11 MB
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