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[ समराइच्च कहा
न जुत्तं मे पविसिउं । तेहि वि य विरत्तचित्तेहि होऊण विसेणं पइ कुमारसेणस्स महाणुभावयं नाऊण 'अम्हाणं चैव भविव्वया जं कुमारो एवं मंत' त्ति चितिऊण अभिप्पेयं भणियं-देवो चेव बहु जाणइति । आवासिओ बाहिरियाए । अइक्कता कहवि वासरा । समागया ते विसेणसमोवमणपेसिया पुरिसा । निवेइयं च गेहि अमरगुरुणो, जहा कयंगलाए नयरीय दिट्ठो कुमारो त्ति । विन्नाओ णं कुओवि एसो देवपरक्कमो । विवेइओ य से अम्हेहि अज्जसंदेसओ । तओ दूमिओ विसेणो,
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विद्दापि मिलाणं से वयणं । पावेण विय गहिओ मच्छरेण । निरुद्धा से भारही । कहकहवि जंपियमणेण । नाहमेवं परभुयवलोवज्जियं करेमि रज्ज । ता गच्छह तुब्भे, न य पुणो वि आगंतव्वं ति । भणिऊण अबहुमाणं च नीसारिया अम्हे । संपइ अज्जो पमाणं ति । अमच्चेण चितियं - अभव्वो खु सोमीए संपाए, जम्मंतरवेरिओ विय महारायस्स । ता इमं चैव निवेएमि देवस्सति । निवेइयं चणे । 'निष्फलो मे परिस्समो' ति विसण्णो कुमारो । भणियं च णेण -अज्ज, अंधयारनच्चियं खु एयं; विणा ताण महारायविसेषेण य को गुणो रज्जेणं ति । अमच्चेण भणियं - एवमेयं, तहावि
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महाराजविषेणेन युक्तं मया प्रवेष्टम् । तैरपि च विरक्तचित्तर्भूत्वा विषेणं प्रति कुमारसेनस्य महानु भावतां ज्ञात्वा 'अस्माकमेव भवितव्यता, यत् कुमार एवं मन्त्रयति' इति चिन्तयित्वाऽभिप्रेतं भणितं 'देव एव बहु जानाति' इति । आवासितो बाहिरिकायाम् । अतिक्रान्ताः कत्यपि वासराः । समागतास्ते विषेणसमीपमनुप्रेषिताः पुरुषाः । निवेदितं च तैरमरगुरवे यथा कृतङ्गलायां नगर्यो दृष्टः कुमार इति । विज्ञातस्तेन कुतोऽप्येष देवपराक्रमः । निवेदितश्च तस्यास्माभिरार्यसन्देशकः । ततो दूनो विषेणः, प्रकृतिविद्राणमपि ( निस्तेजस्कमपि ) म्लानं तस्य वदनम् । पापेनेव गृहीतो मत्सरेण । निरुद्धा तस्य भारती । कथं कथमपि जल्पितमनेन - नाहमेवं परभुजबलोपार्जितं करोमि राज्यम् । ततो गच्छत यूयम्, न च पुनरप्यागन्तव्यमिति । भणित्वाऽबहुमानं च निःसारिता वयम् । सम्प्रत्यार्यः प्रमाणम् । अमात्येन चिन्तितम् - अभव्यः खलु सोऽस्याः सम्पदः, जन्मान्तरवैरिक इव महाराजस्य । तत इदमेव निवेदयामि देवस्येति । निवेदितं च तेन । 'निष्फलो मे परिश्रमः' इति विषण्णः कुमारः । भणितं च तेन-आर्य ! अन्धकारनतितं खल्वेतत्, विना तातेन महाराजविषेणेन च को गुणो
'महाराज विषेण के प्रवेश न करने पर मेरा प्रवेश करना उचित नहीं है।' उन्होंने भी विरक्त चित्त होकर कुमारसेन की विषेण के प्रति महानुभावता को जानकर 'हमारी ही होनहार है जो कुमार इस प्रकार कह रहे हैं' ऐसा सोचकर इष्ट बात कही - ' महाराज ही अधिक जानते हैं ।' नगर के बाहरी प्रदेश में ठहरे। कुछ दिन बीत गये 1 विषेण के पास भेजे गये वे पुरुष आ गये । उन्होंने अमरगुरु से निवेदन किया कि कृतमंगला नगरी में कुमार दिखाई दिये । इन्होंने कहीं से महाराज का पराक्रम जान लिया है। उनसे हम लोगों ने आर्य का सन्देश निवेदन किया । अनन्तर विषेण दुःखी हुआ, स्वभाव से निस्तेज होने पर उसका मुख और भी फीका पड़ गया । पाप के समान ईर्ष्या ने ग्रस लिया। उसकी वाणी रुद्ध हो गयी। उसने जिस किसी प्रकार कहा- 'मैं दूसरों की भुजाओं से उपार्जित राज्य नहीं करता हूँ । अतः तुम लोग जाओ, पुनः मत आना।' इस प्रकार कहकर निरादरपूर्वक हमलोगों को from faया । आप ही प्रमाण हैं ।' मन्त्री ने सोचा- वह ( राज्य ) सम्पदा के योग्य नहीं है मानो महाराज का दूसरे जन्म का बैरी है। तो यही महाराज से निवेदन करता हूँ । मन्त्री ने निवेदन कर दिया । 'मेरा परिश्रम निष्फल हुआ' इस प्रकार कुमार दुःखी हुआ । उसने कहा- 'आर्य ! यह तो अन्धकार में नृत्य करने जैसा हुआ, पिता जी और महाराज विषेण के बिना राज्य में कौन-सा गुण है ?' मन्त्री ने कहा - 'यह ठीक
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