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________________ सत्तमो भवो] ६४३ तुमए नरिंदाणुरूवं, न मुक्को पुरिसयारो, न पडिवन्नं दोणतणं; उज्जालिया पुवपुरिसदिई । गहियं मए इमं रज्ज, न उण तुज्य कित्ती । ता न संतप्पियव्वं तुमए । विसेणराइणो वि अहिओ भाय तुमं ममंति। सबहुमाणमेव नेयाविओ आवासं । बद्धा वणपट्टया, पइऊण पेसिओ निययरज्ज।। भणिओ अमरगुरू --अज्ज, गवेसिऊण पेसेहि चंपाए विसेणमहारायं। तेण भणियं-जं देवो आणबेइ । अवि य, देव, तुम्हाणं पि जुत्तमेव चंपागमणं । तहिं गओ सयमेव कुमारं पेसइस्सइ महाराओ। सेणकुमारेण भणियं-अज्ज, गच्छामो चंपं । महाराओ पुण विसेणो, जस्स ताएण अहिसेओ को ति। मंतिणा भणियं-जं देवो आणवेइ । पेसिया गेण विसेणसमीवं केइ पुरिसा, भणिया य एए। वत्तव्वो तुम्भेहि कुमारो, जहा देवो आणवेइ 'एहि, पिइपियामहोवज्जियं रज्ज कुणसु त्ति । गया ते विसेणसमोवं ।। कुमारसेणो वि अणवरयपयाणएहि समागओ चंपं । परितुद्वा पउरजणवया, निग्गया पच्चोणि, पूइया कुमारेण । विन्नत्तो यहि-देव, पविससु त्ति । कुमारेण भणियं-अपविठे महारायविसेम्मि त्वया नरेन्द्रानुरूपम्, न मुक्तः पुरुषकारः, न प्रतिपन्नं दीनत्वम्, उज्ज्वालिता पूर्वपुरुषस्थितिः । गृहीतं मयेदं राज्यम्, न पुनस्तव कीर्तिः, ततो न सन्तप्तव्यं त्वया । विषेणराजादपि अधिको भ्राता त्वं ममेति । सबहुमानं नायित आवासम । बद्धा व्रणपट्टाः । पूजयित्वा प्रेषितो निजराज्यम्। भणितोऽमरगुरुः-आर्य ! गवेषयित्वा प्रेषय चम्पायां विषेणमहाराजम् । तेन भणितम्यद्देव आज्ञाप यति । अपि च, देव ! युष्माकमपि युक्तमेव चम्पागमनम्। तत्र गतः स्वयमेव कुमारं प्रेषयिष्यति महाराजः । सेनकुमारेण भणितम् -आर्य ! गच्छामो चम्पाम्, महाराजः पुनविषणः, यस्य तातेनाभिषेकः कृतः इति । मन्त्रिणा भणितम्-यद्देव आज्ञापयति । प्रेषितास्तेन विषणसमीपं केऽपि पुरुषाः, भणिताश्चैते । वक्तव्यो युष्माभिः कुमारः, यथा देव आज्ञापयत 'एहि पितृपितामहोपाजितं राज्यं कुरु' इति । गतास्ते विषेणसमीपम् । कुमारसेनोऽपि अनवरतप्रयाणकैः समागतश्चम्पाम् । परितुष्टाः पौरजनवजाः। निर्गताः सम्मुखम् । पूजिताः कुमारेण । विज्ञप्तश्च तैः-देव ! प्रविशेति । कुमारेण भणितम् - अप्रविष्टे राजा के अनुरूप उचित कार्य किया, पुरुषार्थ को नहीं छोड़ा, दीन भाव को प्राप्त नहीं हुए, पूर्वजों की मर्यादा को प्रकाशित किया। मैंने इस राज्य को ले लिया है, तुम्हारी कीर्ति को नहीं, अतः तुम्हें दुःखी नहीं होना चाहिए । विषेण राजा से भी अधिक (प्यारे) तुम मेरे भाई हो । (इस प्रकार) आदरपूर्वक निवास पर ले गये । घावों पर पट्टी बांधी। पूजा कर अपने राज्य को भेज दिया। (कुमार ने) अमरगुरु से कहा-'आर्य ! ढूंढकर चम्पा में विषेण महाराज को भेजो।' उसने कहा-'जो महाराज की आज्ञा । दूसरी बात यह है महाराज कि आपका भी चम्पा जाना उचित ही है । वहाँ पर जाने पर महाराज स्वयं ही कुमार को भेजेंगे।' सेनकुमार ने कहा-'आर्य, चम्पा को चलते हैं, किन्तु महाराज विषेण ही हैं, जिनका पिता जी ने अभिषेक किया है।' मन्त्री ने कहा -- 'जो महाराज आज्ञा दें।' उसने विषेण के पास कुछ आदमियों को भेजा और इन लोगों से कहा कि आप लोग कूमार से कहिए कि महाराज आज्ञा देते हैं - 'आओ, पितपितामह द्वारा उपाजित राज्य को करो।' वे विषेण के पास गये। __कुमारसेन भी निरन्तर गमन करते हुए चम्पानगरी में आया। नगरवासियों के समूह आनन्दित हुए। सामने निकले । कुमार ने सम्मान किया। उन्होंने निवेदन किया-'महाराज ! प्रवेश कीजिए।' कुमार ने कहा Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001882
Book TitleSamraicch Kaha Part 2
Original Sutra AuthorHaribhadrasuri
AuthorRameshchandra Jain
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1996
Total Pages450
LanguagePrakrit, Sanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Story, & literature
File Size11 MB
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