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________________ ६४२ [समराइच्चकहा कंजरवरवियडतडा विउडियभडविडवपायडियकला। करिमयपंकक्खउरा' रुहिरवसावाहिणी बूढा ॥६४०।। इय भोसणसंगामे जलहरसमए व्व निहयनियसेन्ने । गाढं मुत्तावीढो सेणकुमारेण पढिरुद्धो ।।६४१।। आयारेऊण दढं काउं सुरसिद्धबहुमयं जुज्झं । पडिपहरं पहरंतो पहओ तिक्खेण खग्गेण ॥६४२॥ तत्तो य विसमदट्ठोट्रभिउडिरत्तंतनेत्तदुप्पेच्छो। आयड्ढेतो पडिओ मुच्छाविहलो महीवठे ॥६४३।। उग्घटो जयसद्दो जियं कुमारेण पेच्छयजणेहि । जयसिरिपवेसमंगलतूरं व समाहयं तूरं ॥ ६४४॥ कुमारेण वि य मुत्तावोढपोरुसायढियहियएण तालयंटवाएण चंदणसलिलाम्भुक्खणेण सयमेवासासिओ मुत्तावोढो । लद्धा णणं चेयणा। भणिओ कुमारेण-साहु भो नरिंद, साहु अणुचिट्ठियं कुजरवरविकटतटा विकुटितभटविटपप्रकटितकूला। करिमदपङ्ककलुषिता रुधिरवसावाहिनी व्यूढा (प्रवृत्ता) ॥६४०॥ इति भीषणसंग्रामे जलधरसमये इव निहतनिजसैन्यो । गाढं मुक्तापीठः सेनकुमारेण प्रतिरुद्धः ॥६४१॥ आकार्य दृढं कृत्वा सुरसिद्धबहुमतं युद्धम् । प्रतिपहारं प्रहरन प्रहतस्तीक्ष्णेन खड्गेन ॥६४२॥ ततश्च विषमदष्टौष्ठरक्तान्तनेत्रदुष्प्रक्षः । आकृषन् पतितो मूर्छाविह्वलो महीपृष्ठे ॥६४३॥ उद्घोषितो जयशब्दो जितं कुमारेण प्रेक्षकजन. । जयश्रीप्रवेशमङ्गल तूर्यमिव समाहतं तूर्यम् ॥६४४॥ कुमारेणापि च मुक्तापीठपौरुषाकृष्टहृदयेन तालवृन्तवातेन चन्दनसलिलाभ्युक्षणेन स्वयमेवाश्वस्तो मुक्तापीठः । लब्धा तेन चेतना। भणितः कुमारेण-साधु भो नरेन्द्र ! साध्वनुष्ठितं श्रेष्ठ हाथियों के भयंकर तट से नष्ट हुर योद्धारूपी वृक्षों से किनारे प्रकट हो गये। हाथियों के मदरूपी कीचड़ से कलुषित हुई खून और चरबी की नदी बहने लगी। इस प्रकार वर्षाकाल के समान भीषण संग्राम में अपनी सेना के मारे जाने पर मुक्तापीठ सेनकुमार के द्वारा दृढ़तापूर्वक रोक लिया गया। ललकार कर सुरों और सिद्धों के द्वारा मान्य किये गये युद्ध को दृढ़ करके प्रतिक्षण तीक्ष्ण तलवारों से परस्पर प्रहार करते हुए मारने लगे। अनन्तर भयंकर दांत, ओठ और लाल नेत्रप्रान्त से कठिनाई से देखे जानेवाला मुक्तापीठ खींचा जाने पर मूर्छा से विह्वल हो पृथ्वीतल पर गिर गया । 'कुमार ने (मुक्तापीठ को) जीत लिया'-इस प्रकार दर्शक जनों ने जय शब्द की घोषणा की। विजयलक्ष्मी के प्रवेश के समय बजाये जानेवाले मंगलवाद्यों के समान बाजे बजाये गये ॥६४०-६४४॥ ... मुक्तापीठ के पुरुषार्थ से जिसका हृदय आकृष्ट था, ऐसे कुमार ने पंखे को हवा कर चन्दन के जल को सींचकर मुक्तापीठ को स्वयं आश्वस्त किया । उसे होश आया। कुमार ने कहा-'हे नरेन्द्र ! ठीक है, तुमने १. खउरा (वे.) कत षिता । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001882
Book TitleSamraicch Kaha Part 2
Original Sutra AuthorHaribhadrasuri
AuthorRameshchandra Jain
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1996
Total Pages450
LanguagePrakrit, Sanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Story, & literature
File Size11 MB
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